राष्ट्रीय राजधानी के पुराने राजेंद्र नगर में एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में तीन छात्रों की त्रासद मौत के बाद नगर संस्थाओं और कानून व्यवस्था की एजेंसियों की सक्रियता ने संतोष की बात दिखाई है। कोई आश्चर्य नहीं कि हर जिम्मेदार संस्था खुद को बचाने में लगी हुई है और आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जा रही है। दिल्ली नगर निगम ने रविवार को शहर के 13 अन्य सिविल सर्विस कोचिंग सेंटरों के बेसमेंट को सील कर दिया है। पीड़ित और आक्रोशित छात्र कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं, और सरकारी संस्थाओं को बेहिचक सुधार पर ध्यान देना चाहिए।
यह स्पष्ट है कि जो भी सेंटर बेसमेंट या भूतल में चल रहे हैं, उन्हें बंद करना जरूरी है। कम किराए और अधिकतम लाभ के लिए कोचिंग संचालक बेसमेंट को तरजीह देते हैं, लेकिन क्या बेसमेंट या खासकर प्रतिकूल मौसम में इनमें कक्षाओं का आयोजन बंद नहीं होना चाहिए? क्या जरा भी आशंका नहीं थी कि बेसमेंट में पानी जानलेवा हो सकता है? पुलिस ने छह से ज्यादा आरोपियों को गिरफ्तार किया है, पर वास्तव में कार्रवाई उन लोगों पर होनी चाहिए, जो विद्यार्थियों की सुरक्षा के प्रति लापरवाह थे।
पहली नजर में कोचिंग सेंटर ने अक्षम्य लापरवाही का परिचय दिया। जब घटना शाम 6:35 बजे घटी, तब पुलिस और अग्निशमन विभाग के अधिकारियों को सूचना शाम 7:10 बजे क्यों दी गई? पानी इतना भर गया था कि डूबे हुए छात्रों तक पहुंचने के लिए गोताखोरों को बुलाना पड़ा। अगर हम पीछे पलटकर देखेंगे, तो इंतजाम में अनगिनत कमियां नजर आएंगी, मगर अब जरूरत आगे की सुध लेने की है। आज हो क्या रहा है? दोषारोपण का दौर चल रहा है। दिल्ली की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार संस्थाएं और नेता एक-दूसरे के सामने आ खड़े हुए हैं, तो इससे चिंता ही बढ़ती है। एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे लोग अगर दिल्ली की सुरक्षा के लिए मिलकर काम करते, तो शायद यह हादसा ही नहीं होता।
दिल्ली में भवनों से जुड़े अनापत्ति-प्रमाणपत्र कैसे लिए-दिए जा रहे हैं? जहां पार्किंग और भंडारण की सुविधा होनी चाहिए थी, वहां पुस्तकालय और कक्षाएं कैसे चल रही हैं? इस हादसे के बाद दिल्ली में भवन व्यवस्था में सुधार आए, तो बात बनेगी। आज छात्र सुधारों की मांग कर रहे हैं, पर उनके साथ कौन खड़ा है? देश भर से छात्र पढ़ने के लिए दिल्ली आते हैं, क्योंकि उन्हें यहां की व्यवस्थाओं पर भरोसा है। वे दिल्ली को अपने गांव-शहर से बेहतर जगह मानते हैं। मगर अब दिल्ली को सोचना चाहिए कि वह देश की उम्मीदों पर कितनी खरी उतर रही है।
बेशक, दिल्ली आज सुविधाओं का एक बड़ा केंद्र है, पर अपनी कमियों से हमने उस पर अक्सर दाग लगाया है। कमियों पर सियासत गलत नहीं है, लेकिन जब हर तरफ सियासत ही होने लगे, तब जल्दी समाधान की उम्मीदें कमजोर पड़ने लगती हैं। सियासी दल एक-दूसरे के खिलाफ प्रदर्शन पर उतर आए हैं। मामला सड़क से संसद तक पहुंच गया है, पर असली मुद्दा यह है कि आज छात्र अपनी सुरक्षा के प्रति कितने आश्वस्त हैं? उन्हें आगे आकर कौन आश्वस्त करेगा?
अब समय आ गया है कि शहरों में हम सियासत की ओर बार-बार न देखें, हमारे लिए व्यवस्था का चाक-चौबंद होना सबसे जरूरी है। जो संस्थाएं हैं, उन्हें निर्धारित ढंग से काम करने देना चाहिए। अधिकारियों को सुधार की कमान थमानी चाहिए और युद्ध स्तर पर एक-एक नागरिक की सुरक्षा पुख्ता होनी चाहिए, छात्र और लोग यही चाहते हैं।