जम्मू-कश्मीर में एक दशक के बाद विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज़ हो गई है। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) ने साथ में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) अपने सहयोगी दलों के साथ चुनाव में भाग लेगी। इन सबके बीच, प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी के पूर्व सदस्य निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में हैं। जमात-ए-इस्लामी ने अपना आखिरी चुनाव 1987 में लड़ा था, जो कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
1987 के चुनाव का ऐतिहासिक संदर्भ
1987 के विधानसभा चुनाव कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में एक अहम मोड़ बने। इस चुनाव में केवल राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ही नहीं, बल्कि अलगाववादी भी चुनावी मैदान में उतरे। कई नेताओं ने इस चुनाव के बाद व्यवस्था से नाउम्मीद होकर पाकिस्तान जाकर आतंक की ट्रेनिंग ली, जिसके परिणामस्वरूप 1989 में कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन और पाकिस्तान में आतंकवाद के नए दौर की शुरुआत हुई।
फारुख अब्दुल्ला की सरकार और गुलाम मोहम्मद शाह का विद्रोह
शेख अब्दुल्ला के बेटे फारुख अब्दुल्ला ने चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री का पद संभाला, लेकिन कुछ ही समय बाद उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने पार्टी तोड़कर अलग हो गए। केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने प्रदेश कांग्रेस के दबाव में गुलाम मोहम्मद शाह को समर्थन दिया, लेकिन शाह ने कांग्रेस के निर्देशों का पालन करने से इनकार कर दिया। इसके बाद, अनंतनाग में हिंदुओं के खिलाफ दंगे भड़कने के कारण कांग्रेस ने शाह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया।
कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन
सात महीने के राष्ट्रपति शासन के बाद, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस ने गठबंधन कर एक नई सरकार बनाई, जिसमें शेख अब्दुल्ला फिर से मुख्यमंत्री बने। दोनों पार्टियों ने तय किया कि वे अगला चुनाव मिलकर लड़ेंगी। उस समय प्रदेश में ये दो सबसे बड़ी पार्टियां थीं, और गठबंधन से भारी बहुमत मिलने की संभावना थी। हालांकि, सत्ता के बंटवारे की बातचीत के बीच, बहुत कुछ बदलना बाकी था।
अलगाववादियों की चुनावी चुनौती
अलगाववादी नेताओं ने चुनावी मैदान में उतरने के लिए एक नया गठबंधन, मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) बनाया। मौलवी अब्बास अंसारी के नेतृत्व में, इस गठबंधन ने कश्मीरियों के बीच लोकप्रियता हासिल की। कांग्रेस और एनसी के लिए यह चुनावी चुनौती बन गई। एमयूएफ ने चुनावी प्रचार में दवात और कलम का प्रतीक इस्तेमाल किया, और कांग्रेस पर आरोप लगे कि वे एमयूएफ के प्रचार के खिलाफ कार्यवाही कर रहे हैं।
चुनाव का परिणाम और इसके प्रभाव
23 मार्च 1987 को हुए चुनाव में कश्मीरियों ने जोरदार मतदान किया, और एमयूएफ के उत्साह को देखकर कांग्रेस और एनसी को अपनी हार का अंदेशा होने लगा। 24 मार्च को मतगणना शुरू हुई और इसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। एमयूएफ के कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि उनके खिलाफ धांधली की जा रही है, और चुनाव परिणामों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे आतंकी संगठनों ने इस माहौल का फायदा उठाया और युवाओं की भर्ती शुरू कर दी।
चुनाव परिणाम में एनसी को 40 सीटें, कांग्रेस को 26 सीटें और एमयूएफ को 4 सीटें मिलीं। हालांकि, दिल्ली में स्थिति को सामान्य मान लिया गया, लेकिन जम्मू-कश्मीर में आतंक का नया दौर शुरू हो गया। फारुख अब्दुल्ला की सरकार को गहरा संकट झेलना पड़ा, और इस चुनाव के बाद कश्मीर में आतंकवाद और हिंसा का एक नया अध्याय शुरू हुआ।
कांग्रेस और फारुख अब्दुल्ला ने चुनाव में किसी भी धांधली से इनकार किया, और कहा कि अगर ऐसा होता, तो एमयूएफ को चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए था, न कि हिंसा का सहारा लेना चाहिए था। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस चुनाव की दोहरी धारणाएँ सामने आईं, लेकिन आज भी यह धारणा कायम है कि 1987 के जम्मू-कश्मीर चुनाव में धांधली हुई थी।