अहमदाबाद:दुनिया में डायमण्ड व सिल्क सिटी के रूप में पहचान रखने वाले गुजरात के प्रख्यात शहर सूरत में चतुर्मास करने के उपरान्त गुजरात की धरा पर गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अहमदाबाद में घोषित 2025 के चतुर्मास से पूर्व ही वर्ष 2024 में ही अहमदाबाद जिले की सीमा में पावन प्रवेश कर आसपास के श्रद्धालुओं को आस्था आप्लावित कर दिया। हालांकि अभी चातुर्मासिक प्रवेश तो अहमदाबाद के कोबा में स्थित प्रेक्षा विश्वभारती में होना है, किन्तु उससे पहले अहमदाबाद जिले की सीमा में आचार्यश्री का पावन प्रवेश जन-जन को उत्साहित करने वाला था। सोमवार को सुबह आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल विहार किया तो मौसम में हल्की ठंड व्याप्त थी। ग्रामीण मार्ग पर गतिमान आचार्यश्री अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जा रहे थे। आचार्यश्री का विहार अहमदाबाद जिले की सीमा में हो रहा था। लगभग 13 किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री वेजलका गांव में स्थित प्राथमिकशाला में पधारे। जहां प्राथमिकशाला से संबंधित लोग तथा अन्य ग्रामीण जनता ने आचार्यश्री का भावपूर्ण स्वागत किया। आचार्यश्री ने सभी को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को अपनी अमृतवाणी के द्वारा पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि अध्यात्म के मार्ग में समर्पण का भी अपना महत्त्व है, भक्ति का अपना महत्त्व है। आदमी जिनको अपना आराध्य मानता है, उनकी भक्ति करता है। जैन शासन में नमस्कार महामंत्र एक सुप्रसिद्ध मंत्र है। छोटे-छोटे बच्चे भी इस महामंत्र को याद कर लेते हैं या कराया जाता है। इसमें पांच होते हैं, और पांचों पदों में ‘णमो’ शब्द का प्रयोग किया गया है। नमस्कार महामंत्र में भक्ति है। जिनके प्रति भक्ति है, वे वीतरागता से जुड़े हुए हैं। अर्हत सम्पूर्ण वीतरागी होते हैं। तीर्थंकर पूर्णतया मोहमुक्त होते हैं। उपाध्यायप्रवर ने चारित्र, आचरण और ज्ञान भी होता है। उनमें ज्ञान का वैशिष्ट्य होता है। वे भी वीतरागता के साधक होते हैं। साधु भी वीतरागता के साधक हैं।
नमस्कार महामंत्र का मूल प्राण तत्त्व वीतरागता और भक्ति है। भक्ति भीतर की हो तो कल्याणकारी होती है। केवल व्यवहार निभाने के लिए की जाने वाली भक्ति अच्छी नहीं होती। आदमी के अंतर्मन में भक्ति होनी चाहिए। अर्हतों, तीर्थंकरों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओं के प्रति अंतर्मन में भक्ति होनी चाहिए। निश्चय का अपना क्षेत्र और व्यवहार का अपना क्षेत्र है। अंतर्मन से भक्ति हो जाए अथवा मन से कोई वीतरागी बन जाए भले वह साधु वेश में नहीं होते हुए भी वह साधु के समान हो जाता है। व्यवहार से निश्चय का बहुत ज्यादा महत्त्व है।
इसलिए निश्चय में वीतरागता, सम्यक्त्व, चारित्र आदि प्राप्त हो जाए तो जीव का कल्याण हो सकता है। कई बार व्यवहार में कोई भले साधु हो जाए, वह अंतर्मन से वीतरागी नहीं है तो भला उसका भी कल्याण कैसे संभव हो सकता है। अभव्य को मोक्ष का स्थान नहीं मिलता है। भीतर में शांति हो। यथार्थ औरर सिद्धांत के प्रति भक्ति हो और उस दिशा में अपनी शक्ति का नियोजन हो तो भक्ति अच्छी परिणामदायक बन सकती है। नियम के प्रति निष्ठा हो, समर्पण का भाव हो और त्याग हो तो बहु अच्छी बात हो सकती है। थोड़ा तकलीफ उठाकर भी नियमों का पालन किया जाए तो वह नियम के प्रति भक्ति का भाव होता है। इसलिए आदमी के मन में जितनी भक्ति और निष्ठा होती है, आदमी नियमों को अच्छा पाल सकता है। इसलिए आदमी को निश्चय में भक्ति और निष्ठा करने का प्रयास करना चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरान्त स्कूल के श्री विजयभाई बाघेला व श्री जयसिंह भाई ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी।