अहमदाबाद: शास्त्र में अनेक प्रकार की बाते हैं। ग्रंथों में भी अनेक प्रकार की बाते मिलती हैं। अध्यात्म के ग्रंथों में अध्यात्म का मार्गदर्शन प्राप्त हो जाता है। युद्ध की बात लोक में, संसार में तो चलती ही हैं, परन्तु धर्मशास्त्र में भी युद्ध करने की बात बताई गई है। बताया गया है कि हे मानव! तुम अपनी आत्मा से युद्ध करो, बाह्य युद्ध से निवृत्त हो जाओ।
तीर्थंकरों ने आत्मसाधना की। भगवान महावीर ने अपनी साधना अवधि में कितनी साधना और तपस्या की। भगवान ऋषभ ने सांसारिक जीवन जीने के बाद भी अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ गए। वे राजा बनकर जनता की सेवा की तो तीर्थंकर बनकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। तीर्थंकरों की देशना से मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। उनकी प्रतिमाएं मंदिरों में भले प्राप्त हो जाएं, किन्तु इस समय तो सदेह तीर्थंकर नहीं देखे जा सकते। ग्रंथों में बताया गया कि प्राणी अपनी आत्मा के साथ युद्ध करो। बाहर के युद्ध में तो कभी किसी देश, स्थान, अथवा किसी व्यक्ति पर विजय प्राप्त किया जाता है, लेकिन इस आत्मा के युद्ध से क्या प्राप्त होगा, यह प्रश्न भी हो सकता है। समाधान बताया गया कि अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए अपनी आत्मा से युद्ध करना चाहिए। जिस स्वरूप पर कर्मों ने कब्जा कर लिया है, उसे कर्मों से मुक्त कराकर स्वरूप को प्राप्त करने के लिए आत्मयुद्ध की बात बताई गई है।
मोहनीय कर्म को इन कर्मों का सेनापति बताया गया है। मोहनीय कर्म का महत्त्व तो मानव के शीश के समान होता है। आदमी की असली लड़ाई मोहनीय कर्म से ही होती है। लड़ाई के लिए पहले अस्त्र, शस्त्र और कुशल योद्धा की भी आवश्यकता होती है। मोहनीय कर्म रूपी शत्रु से लड़ाई लड़ने के लिए धर्म रूपी शस्त्रों की आवश्यकता होती है। गुस्सा, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि पर विजय प्राप्त करने के लिए समता, शांति, संतोष, सरलता, अहिंसात्मक चेतना रूपी शस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए। मोहनीय कर्म को मार दिए जाने से शेष कर्म तो अपने आप धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। गुस्से को उपशम के द्वारा, मान को मार्दव के द्वारा, माया को आर्जव से तथा लोभ को संतोष से जीता जा सकता है। इसके लिए आदमी को अपने जीवन में उपशम की चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। इन शस्त्रों के माध्यम से आत्मयुद्ध में जय प्राप्त की जा सकती है।
सौभाग्य से प्राप्त इस मानव जीवन में मोहनीय कर्म को जितना संभव हो सके, नष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। धर्म की साधना, संवर, निर्जरा, त्याग, प्रत्याख्यान आदि भी आत्मा को निर्मल बनाने और पापों से बचाने का उपाय है। इस प्रकार आदमी को आत्मयुद्ध कर आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए। उक्त पावन पाथेय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अरणेज जैन तीर्थ परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित श्रद्धालु जनता को प्रदान की।
इसके पूर्व मंगलवार को प्रातः शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वेजलका से गतिमान हुए। विहार के दौरान आज शीत लहर पथिकों को अच्छी ठंड महसूस करा रही थी। सूर्य के आसमान में चढने के साथ ही वह भी जाती रही। मार्ग में लोगों को मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए बढ़ते जा रहे थे। आचार्यश्री की इस यात्रा में जैन संप्रदाय के अनेक संतों और साध्वियों से मिलना हो रहा है। लगभग आठ किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री अरणेज में स्थित जैन तीर्थ में पधारे, जहां उपस्थित लोगों ने आचार्यश्री का भावभीना स्वागत किया।
मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त खेड़ब्रह्मा से समागत बसंत भाई पटेल ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।