भुज, कच्छ (गुजरात) : भुज की धरा पर गुजरात का प्रथम और तेरापंथ धर्मसंघ का 161वां मर्यादा महोत्सव का भव्य समायोजन करने के उपरान्त भुजवासियों पर एक और विशेष कृपा बरसाते हुए जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, महातपस्वी, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शुक्रवार को भुज की धरा आयोजित हुए दीक्षा समारोह में मुमुक्षु केविन को दीक्षा प्रदान की तो भुजवासी ऐसी कृपा को प्राप्त कर निहाल हो उठे।
शुक्रवार को प्रातः नौ बजे से पूर्व ही कच्छी पूज समवसरण श्रद्धालुओं की उपस्थिति से जनाकीर्ण बनी हुई थी। शांतिदूत आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आज दीक्षा समारोह का अवसर था तो मंच पर साधु-साध्वियों की विशेष उपस्थिति थी। आचार्यश्री के मंगल महामंत्रोच्चार के साथ दीक्षा समारोह केे कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। मुमुक्षु कल्प और मुमुक्षु प्रीत ने दीक्षार्थी केविन का परिचय प्रस्तुत किया। पारमार्थिक शिक्षण संस्था की ओर से श्री मोतीलाल जीरावला ने दीक्षार्थी के आज्ञा पत्र का वाचन किया। उस आज्ञा पत्र को दीक्षार्थी केविन के पिता श्री शक्ति भाई आदि ने आचार्यश्री के कर कमलों में अर्पित किया।
दीक्षार्थी केविन ने भी दीक्षा से पूर्व आचार्यश्री के समक्ष अपने आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति दी। तदुपरान्त जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भुज की धरा दीक्षा देने से पूर्व जनता को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि जीवन में धर्म की महिमा बताई गई है। अहिंसा, संयम और तप धर्म है। इस धर्म की आराधना गृहस्थ जीवन में भी एक सीमा तक हो सकती है, परन्तु इस धर्म की विशिष्ट आराधना एक साधु या अनगार कर सकता है। अनगार वह होता है, जिसका अपना कोई घर नहीं होता, आगार नहीं होता, साधु संयोग से विप्रमुक्त हो जाता है। भिक्षा से जीवन चलाने वाला हो जाता है।
आज अनगार दीक्षा समारोह है। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ की दीक्षा का प्रसंग है। इस प्रसंग में लिखित आज्ञा पत्र मुझे प्राप्त हुआ है, परन्तु परिषद है तो साक्षात् आज्ञा भी ली जा सकती है। आचार्यश्री ने दीक्षार्थी केविन के माता-पिता, दादा आदि को सम्मुख बुलाकर मौखिक स्वीकृति भी ली। दीक्षार्थी के परिजनों से मौखिक स्वीकृति लेने के उपरान्त आचार्यश्री ने दीक्षार्थी के भावनाओं का अंतिम परीक्षण भी किया। तत्पश्चात आचार्यश्री ने दीक्षा के संस्कारों का शुभारम्भ आर्षवाणी का उच्चारण करते हुए दीक्षा की प्रक्रिया प्रारम्भ कर ली। महातपस्वी के श्रीमुख से उच्चरित आर्षवाणी के साथ तीन करण-तीन योग सर्व सावद्य योगों का त्याग कराया तो दीक्षार्थी केविन ने साधुत्व की दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्यश्री ने आर्षवाणी से अतीत की आलोचना कराई।
केश लुंचन के संस्कार को स्वयं आचार्यश्री ने अपने हाथों से सम्पन्न किया और नवदीक्षित साधु का केशलुंचन सम्पन्न किया। यह दृश्य भुजवासियों को आह्लादित करने वाला था। तदुपरान्त आचार्यश्री रजोहरण प्रदान करने की प्रक्रिया को भी पूर्ण किया। दीक्षार्थी केविन को आचार्यश्री ने साधुत्व दीक्षा प्रदान करने के उपरान्त नामकरण करते हुआ नया नाम मुनि कैवल्यकुमार प्रदान किया। नए नाम को सुनकर पूरा प्रवचन पण्डाल जयघोष कर उठा। आचार्यश्री की आज्ञा से श्रावक समाज ने नवदीक्षित साधु का अभिवादन किया। आचार्यश्री ने नवदीक्षित साधु को साधुत्व जीवन की विविध प्रेरणाएं प्रदान की। नवदीक्षित मुनिजी को शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए बहुश्रुत परिषद के सदस्य मुनि दिनेशकुमारजी के संरक्षण सौंपा।
आचार्यश्री के दीक्षा की प्रक्रिया को सम्पन्न करने के उपरान्त साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने दीक्षा के महत्त्व को व्याख्यायित किया। आचार्यश्री ने पुनः लोगों को संबोध प्रदान करते हुए कहा कि आज के दिन अष्टमाचार्य कालूगणी ने बालक को मुनि नथमलजी (टमकोर) के रूप में दीक्षा प्रदान की। वे हमारे धर्मसंघ के दसवें आचार्य बने। उन्होंने प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को काफी आगे बढ़ाया। आगम कार्यों में भी उनका विशेष योगदान रहा। आज उनके दीक्षा दिवस का 95वां वर्ष है। अनेक रूपों में उनका बड़ा योगदान रहा। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का दिवस ही मुनि कैवल्यकुमार का दीक्षा दिवस बन गया है। मुनि कैवल्यकुमार खूब अच्छा विकास करे। जितना दूसरों का भी उन्नयन कर सके, करने का प्रयास करना चाहिए।