आज, 11 मार्च 2025, हिंदवी स्वराज्य के दुसरे छत्रपती संभाजी महाराज की पुण्यतिथि है। संभाजी महाराज अपने अदम्य साहस और धर्मनिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं, जिन्होंने मुगल शासक औरंगजेब के दिल में खौफ पैदा कर दिया था। उन्हें प्यार से ‘छावा’ कहा जाता था, जिसका अर्थ “शेर का बच्चा” होता है। वे एक ऐसे वीर योद्धा थे जिन्होंने 40 दिनों तक अमानवीय यातनाएँ सहते हुए भी अपने धर्म और स्वराज्य के प्रति अडिग निष्ठा का प्रदर्शन किया। उनकी यह वीरता आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
संभाजी महाराज के शौर्य की नींव
संभाजी महाराज का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले पर हुआ था। वे मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपती शिवाजी महाराज और उनकी पहली पत्नी सईबाई के सबसे बड़े बेटे थे। मात्र ढाई साल की उम्र में ही उनकी मां का साया उठ गया और उनका पालन-पोषण उनकी दादी, राजमाता जिजाऊ ने किया। जिजाऊ के संस्कारों और शिवाजी महाराज के मार्गदर्शन में संभाजी ने बचपन से ही शस्त्र और शास्त्र दोनों में महारत हासिल की। छोटी उम्र में ही वे अपने पिता के साथ आगरा गए, जहां उन्होंने मुगलों की चालबाजियों को नजदीक से देखा। इस अनुभव ने उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया।
संभाजी बहुभाषी थे और संस्कृत, मराठी सहित कई भाषाओं में पारंगत थे। उन्होंने ‘बुधभूषण’, ‘नायिकाभेद’, ‘सातशतक’ जैसे ग्रंथों की रचना की, जो उनकी साहित्यिक प्रतिभा को दर्शाते हैं। लेकिन उनकी असली पहचान एक योद्धा के रूप में थी, जिसने कभी हार नहीं मानी।
स्वराज्य के रक्षक: एक भी युद्ध में न हारने वाला योद्धा
शिवाजी महाराज के निधन के बाद, 1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाली। इतिहासकार बताते हैं कि उनकी छोटी-सी शासन अवधि (1681-1689) में उन्होंने 100 से अधिक युद्ध लड़े और एक भी नहीं हारा। चाहे वह मुगलों के खिलाफ हो या गोवा में पोर्तुगीज, संभाजी ने हर मोर्चे पर अपनी शक्ति और रणनीति से शत्रुओं को चौंका दिया। उनके युद्ध कौशल और शौर्य ने मुगलों को भयभीत कर दिया था।
40 दिनों की यातनाएँ: अडिग संकल्प की मिसाल
संभाजी महाराज का अंत स्वकीय विश्वासघात के कारण हुआ। 1689 में, उनके ही एक रिश्तेदार की धोखाधड़ी से वे मुगलों के हत्थे चढ़ गए। औरंगजेब ने उन्हें तुलापुर में बंदी बनाया और इस्लाम स्वीकार करने की शर्त पर जिंदा छोड़ने का प्रस्ताव रखा, लेकिन संभाजी महाराज ने यह कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि वे अपने धर्म और स्वराज्य से कभी समझौता नहीं करेंगे। इसके बाद शुरू हुआ यातनाओं का वह क्रूर सिलसिला, जो 40 दिनों तक चला। उनके शरीर को अमानवीय तरीके से प्रताड़ित किया गया—आंखें निकाली गईं, नाखून उखाड़े गए, चमड़ी उधेड़ी गई, फिर भी उन्होंने ‘जय भवानी’ और ‘हर हर महादेव’ के अलावा कुछ भी नहीं कहा। अंततः 11 मार्च 1689 को उनकी हत्या कर दी गई और शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर भीमा नदी में फेंक दिए गए। लेकिन मराठों ने उनके अवशेषों को संभालकर अंतिम संस्कार किया, जो उनकी लोकप्रियता और बलिदान का प्रमाण है। उस समय छावा की उम्र महज 31 साल थी।
मुगल सल्तनत में खौफ का कारण
संभाजी महाराज की यह वीरता और बलिदान मुगली सल्तनत के लिए एक बड़ा संदेश था। औरंगजेब को लगा था कि संभाजी को खत्म करने से मराठा साम्राज्य कमजोर हो जाएगा, लेकिन इसका उल्टा हुआ। उनके बलिदान ने मराठों में नया जोश भरा और उनकी मृत्यु के बाद भी मराठा शक्ति मजबूत हुई। संभाजी महाराज केवल एक राजा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता, धर्म और आत्मसम्मान के प्रतीक थे। उनकी शहादत ने औरंगजेब के साम्राज्य के पतन की नींव रखी।