चौधरीवास, हिसार:मानव के भीतर अनेक वृत्तियां होती हैं। मन में भावों का परिवर्तन होता रहता है। आदमी के भीतर कभी शुद्ध भाव उत्पन्न होते हैं तो उसी मन अथवा आदमी के भीतर अशुद्ध भाव भी उत्पन्न हो जाते हैं। कभी परकल्याण, दया, सेवा, सहयोग के भावाना से भावित होता है तो कभी ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, असहयोग, घृणा व हिंसा आदि भावों से प्रभावित होता है। आदमी यह प्रयास करे कि उसके भीतर अशुभ भाव न उभरें ताकि शुभ भाव बने रहें।
शुभ भाव बनाए रखने का प्रथम आयाम होता है-क्षमाशीलता। मनुष्य को अपने भीतर क्षमा की भावना का विकास करना चाहिए। गुस्सा, लोभ आदि के वशीभूत होकर आदमी को हिंसा, हत्या, मारकाट से बचने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो आदमी दूसरों को क्षमा करने का प्रयास करे। हिम्मत हो, शक्ति और सामर्थ्य भी हो, इसके बाद भी वह क्षमा करने का प्रयास करे। क्षमाशील होना शुभ भाव का एक आयाम है। शुभ भाव का दूसरा आयाम है-निर्हंकार रहना। मनुष्य को किसी भी प्रकार घमण्ड नहीं करना चाहिए। पैसा, पद, प्रतिष्ठा, ज्ञान और शक्ति का भी घमण्ड नहीं होना चाहिए। दुनिया में अनंत ज्ञान है। आदमी कितना पढ़ पाता है। धन और ज्ञान का दिखाया नहीं करना चाहिए। धन और ज्ञान के दिखावे से आदमी को बचने का प्रयास करना चाहिए। जैसे-जैसे भीतर में ज्ञान का विकास होता है, आदमी शांति की दिशा में आगे बढ़ता है।
शुभ भाव का तीसरा आयाम ऋजुता/सरलता को बताया गया है। किसी को धोखा देने से बचने का प्रयास होना चाहिए। आदमी के कथनी और करनी में एकरूपता हो। मुंह पर कुछ और हो पीछे की बात और हो। आदमी के कथनी और करनी में भेद नहीं होना चाहिए। आदमी सरल हो तो मान लेना चाहिए शुभ भाव का तीसरा आयाम भी जीवन में प्राप्त हो गया। मनुष्य अपने जीवन में संतोष के भाव का विकास करे। मूढ़ आदमी सदैव असंतोष में रहता है। जो पंडित और ज्ञानी होते हैं वे संतोष और शांति में रहते हैं। संतोष को शुभ भाव का चौथा आयाम बताया गया है। इस प्रकार क्षमाशीलता, निर्हंकारता, ऋजुता और संतोष जैसे सद्गुण आदमी के जीवन में हैं तो मानना चाहिए कि उस व्यक्ति का भाव शुभ है। निरंतर शुभ भावों को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। क्रोध, ईर्ष्या, लोभ व लालच जैसे अशुभ भाव न आएं और जीवन में शुभ भावों का समावेश रहे। संत वहीं होता है जो शांत होता है।
उक्त शुभ भाव में रहने की पावन प्रेरणा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को पंचमुखी हनुमानजी मंदिर धाम परिसर के श्री गुरुकृपा भवन में मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के दौरान उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की।
मंगलवार को प्रातः की मंगल बेला में आचार्यश्री अपनी धवल सेना संग आर्यनगर से मंगल प्रस्थान किया। रास्ते में सैंकड़ों लोगों को अपने आशीर्वाद से आच्छादित करते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर बढ़े तो आचार्यश्री के चरणों से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-65 पावनता को प्राप्त हुआ। इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर राष्ट्र संत आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर चौधरीवास स्थित पंचमुखी हनुमानजी मंदिर धाम परिसर में पधारे। जहां मंदिर से जुड़े लोगों ने आचार्यश्री का भावभीना स्वागत किया। आचार्यश्री हनुमानजी के मंदिर में भी पधारे। तदुपरान्त आचार्यश्री इस मंदिर परिसर में बने श्री गुरुकृपा भवन में पधारे। आज सायं तक का प्रवास इसी भवन में हुआ। इस भवन में आयोजित मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में आचार्यश्री ने भगवान राम और रामभक्त हनुमानजी के जीवन से लोगों को प्रेरणा लेने की प्रेरणा प्रदान करते हुए जैन रामायण के आधार पर श्रीरामचन्द्रजी और हनुमानजी के आदर्शों का वर्णन करते हुए जैन रामायण का आंशिक संगान भी किया।