आचार्य भिक्षु का जन्म 1726 ई में पाली जिले के कंटालिया गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम बल्लूजी व माता का नाम दीपाजी था। जैन साधुओं के सामीप्य से उनके वैराग्य भावना का बीजारोपण हुआ। उनकी पत्नी का स्वर्गवास होने पर 25 वर्ष की आयु में वे स्थानकवासी परम्परा में दीक्षा ग्रहण कर जैन साधु बन गये।
आचार्य भिक्षु ने समानता, सहस्तित्व और सहयोग के सिद्धांतों को अपने धर्म संघ में क्रियान्वित किया। उन्होंने धर्म को धर्मस्थानों से बाहर निकालकर जीवनगत बनाने के सूत्र दिए. भिक्षु क्षमता के प्रतीक थे। छोटे और बड़े जीवों को वे समान मानते हैं। गरीब, निरीह, कमजोर, आदि को मारकर अमीर और ताकतवर का पोषण करने को उन्होंने अधर्म बताते हुए कहा- राकां ने मार झींका न पोसे, ते बात घणी छः गैरी। आचार्य भिक्षु सहज कवि और साहित्यकार भी थे।
उन्होंने अड़तीस हजार पदों की रचना की। उनकी साहित्य रचना का प्रमुख विषय शुद्ध आचार परम्परा का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण और संघ की मर्यादाओं का सरल निरूपण था।
उस समय अनेक जैन साधू पथ भ्रष्ट हो रहे थे। मर्यादा से अधिक वस्त्र रखते थे, अधिक सरस आहार लेते थे तथा शिष्य बनाने के लिए आतुर रहते थे। उस समय राजनगर के अनुयायी श्रावकों में रघुनाथ जी के आचार विचार सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर काफी अन्तर्द्वन्द था।
चतुर्मास समाप्त होने पर स्वामीजी ने जोधपुर से विहार किया और क्रमशः विहरण करते हुए बगड़ी में आकर आचार्य रुघनाथजी के दर्शन किये। उचित अवसर देखकर नमृता-पूर्वक उन्होंने सत्य-शोध के लिए सानुरोध निवेदन करते हुए कहा– स्वामिन् ! भगवान् महावीर के वचनों पर विचार करें | संघ में शुद्ध श्रद्धा और शुद्ध आचार की पुनः प्रतिष्ठा करें । आत्म-कल्याण के लिए इस कार्य की अनिवार्य आवश्यकता है | इस प्रकार विविध रूप से समझाने का प्रयास किया, परन्तु उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। वि. सं. १८१५ के राजनगर-चतुर्मास क्री समाप्ति से लेकर वि. सं. १८१७ के चैत्र शुक्ला नवमी तक प्राय: एक वर्ष और पौने पांच महीने व्यतीत हो गये ।। उस अवधि में गुरु-शिष्य में परस्पर अनेक बार विचार-विमर्श हुआ, उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में चर्चाएं भी हुईं, पर सुधार की ओर एक चरण भी आगे बढ़ने का कोई आसार द्रष्टिगत नहीं हुआ | स्वामीजी ने तब स्पष्ट रूप से समझ लिया कि धार्मिक उत्क्रान्ति के लिए यहां से किसी प्रकार की आशा करना व्यर्थ है।
स्वामीजी ने तब अपने चिन्तन-प्रवाह को दूसरी ओर मोड़ दिया। उन्होंने सोचा–‘आत्म-कल्याण के जिस महान् उद्देश्य से घर-बार छोड़कर मैं यहां दीक्षित हुआ, उसकी कुछ भी पूर्ति नहीं हो पा रही है। इस स्थिति में संघ के व्यामोह में फंसकर निरुदेश्य यहां बैठे रहना मेरे लिए शोभास्पद नहीं हो सकता। मुझे आत्म-कल्याण को ही प्राथमिकता देनी चाहिए | उसके बिना प्रत्येक साधना केवल विराधना या विडम्बना बनकर रह जाती है।’ उक्त चिंतन-क्रम में उन्होंने संघ से सम्बन्ध-विच्छेद कर अभिनिष्क्रमण का निश्चय कर लिया।
उन्होंने उपयुक्त समय का निर्धारण किया और तदनुसार वि. सं. १८१७ चेत्र शुक्ला नवमी को आचार्य रुघनाथजी से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया | उनके साथ टोकरजी, हरनाथजी, वीरभाणजी और भारमलजी; इन चार सतों ने भी उस मार्ग का अनुसरण किया । ये चारों वे ही संत थे, जो राजनगर चतुर्मास में भी स्वामीजी के साथ थे। तत्काल पांचों साधु ‘स्थानक’ को छोड़कर बाहर आ गये । ‘रामनवमी’ नाम से समग्र भारत में प्रख्यात वह पर्व-दिन स्वामी भीखणजी के लिए आत्म-विजय के पथ पर अभिनिष्क्रमण का पुनीत दिन बन गया।