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आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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Home आराधना-साधना

आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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May 12, 2025
in आराधना-साधना
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आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े मानव : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

कमलीवाड़ा, पाटण (गुजरात) : सिद्धपुर की धरा पर दोदिवसीय मंगल प्रवास के दौरान 52वां दीक्षा समारोह जैसे आध्यात्मिक अवसर प्रदान करने के उपरान्त जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ सिद्धपुर से सोमवार को प्रातः की मंगल बेला में गतिमान हुए। अपने आराध्य की विशेष कृपा से हर्षित सिद्धपुरवासियों ने अपनी कृतज्ञता अर्पित कर मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। सभी को मंगल आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री अपने अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले।

अनेक ग्रामीण जनों को भी आचार्यश्री के दर्शन व मंगल आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर मिला। लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी कमलीवाड़ा में स्थित कमलीवाड़ा पगार केन्द्रशाला में पधारे। स्थान से संबंधित लोगों ने आचार्यश्री का भावभरा अभिनंदन किया।

केन्द्रशाला में आयोजित प्रातःकालीन मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम के दौरान उपस्थित लोगों को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि एक आत्मा को प्रमुख मानकर चलने का प्रयास होना चाहिए। किसी के आत्मा तो कोई एकमात्र सत्य अथवा को किसी एक अन्य पदार्थ को अपना मानकर साधना करता है। अध्यात्म की साधना में आत्मा मुख्य ध्येय होती है। पदार्थों का सहयोग-उपयोग लिया जा सकता है, लेकिन आदमी का मूल ध्यान अपनी आत्मा पर रखने का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक क्रिया के दौरान अपनी आत्मा को प्रधान रखने का प्रयास करना चाहिए।

आदमी अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही अपने कृत कर्मों का फल भोगता है। यह मानव जीवन के अकेलेपन की बात होती है। अपना कर्म आदमी को स्वयं भोगता होता है। किसी दूसरे का किए हुए कर्म के फल दूसरे को नहीं भोगना होता है, स्वयं उसीको भोगना होता है। चोरी करना, कष्ट देना, मार डालना आदि सभी कार्य दुःख देने वाले हैं। इन सभी पाप कर्मों का फल आदमी को स्वयं ही भोगना होता है। कर्म भी कर्ता का ही अनुगमन करता है। यह आत्मा का अकेलापन है। सहानुभूति दिखाई जा सकती है, कोई सहयोग अथवा सेवा तो की जा सकती है, लेकिन जो तकलीफ हो रही है, उसे तो कोई भला क्या बांट सकता है। इसलिए अकेलेपन का चिंतन कर आदमी को शुभ कर्म करने का प्रयास करना चाहिए।

पाप कर्मों से बचने और शुभ और धार्मिक कार्य को करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी आत्मा के कल्याण का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, संवर और निर्जरा के द्वारा पूर्व के बंधे हुए कर्मों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। साधना का मूल लक्ष्य ही जन्म-मरण की प्रक्रिया से मुक्ति पाना होता है। इसके अलावा भी आदमी शास्त्रों की बातों को सुनने का प्रयास, स्वाध्याय करने का प्रयास करना चाहिए। पढ़ने से एक नया आलोक मिल सकता है।

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री के स्वागत में स्थानक अग्रणी श्री गिरिशभाई देसाई व श्री फुलेशभाई देसाई ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।

 

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