राजकोट: सौराष्ट्र की धरा पर संघ प्रभावक व जनकल्याणकारी यात्रा करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को रतनपर से गतिमान हुए। मार्ग में अनेक लोगों को मानवता के मसीहा आचार्यश्री के दर्शन का अवसर मिला। वे लोग आचार्यश्री के मंगल आशीर्वाद से भी लाभान्वित हुए। जन-जन के मानस को आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान करते हुए युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर छत्तर गांव में स्थित प्राथमिकशाला में पधारे।
प्राथमिकशाला परिसर में आयोजित प्रातःकाल के मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में समुपस्थित श्रद्धालु जनता को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि संसारी अवस्था में रहने वाली आत्मा जन्म-मरण करती रहती है। संसारी अवस्था का कोई भी जीवन शाश्वत नहीं होता, अशाश्वत और अधु्रव होता है। जीवन अशाश्वत और अनिश्चित भी होता है। किसका जीवन कब समाप्त हो जाए, किसी को भी पता नहीं चलता। जैसे कुश के अग्र भाग पर अटकी ओस की बूंद कब गिर समाप्त हो जाए, कहा नहीं जा सकता, उसी प्रकार कब जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। मानव शरीर के विषय में कहा गया कि धीरे-धीरे शरीर परिजीर्ण हो रहा है। बाल सफेद होने लगते हैं, श्रवण शक्ति भी हीन होने लगती है, इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण हो रही है, इसलिए शास्त्रों में गौतम के नाम संदेश दिया गया कि गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत करो। मानव जीवन में आदमी को सचेत रहने का प्रयास करना चाहिए। मानव का देह भी बड़ा रत्न है, क्योंकि इस देह से जो विदेह की साधना की जा सकती है, वह विशिष्ट है। जितनी साधना मनुष्य जीवन की जा सकती है, अन्य किसी योनी में नहीं किया जा सकता। यह बड़ा सुन्दर अवसर मनुष्य रूप में प्राप्त है तो इसका धर्म की दृष्टि उपयोग हो रहा है, यह ध्यातव्य बात है। खाने, पीने, सोने व प्रमाद में समय बीत जाए तो वह आदमी मानव जीवन का मानों कोई लाभ नहीं उठाना होता है। खाना-पीना, नींद लेना आदि साध्य नहीं, बल्कि ये सभी साधन हैं।
आदमी धर्म की साधना की दृष्टि, संयम, संवर और तप की आराधना करने का प्रयास करना चाहिए। स्वाध्याय, जप आदि के साथ कितनी सेवा करते हैं, यह विशेष बात होती है। जिस ज्ञान से आदमी वीतराग की ओर बढ़ जाए, जिससे चित्त मैत्री से भावित हो जाए, जिससे तत्त्व का बोध हो, वह जिन शासन अथवा अध्यात्म विद्या का ज्ञान है। उस ज्ञान की प्राप्ति में आदमी को समय लगाने का प्रयास करना चाहिए। उससे आदमी को आनंद प्राप्त हो सकता है और मुक्ति की दिशा में गतिशीलता भी हो सकती है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए आदमी में ग्रहण करने वाली शक्ति होनी चाहिए, समझशक्ति और स्मरणशक्ति भी होनी चाहिए। इसके साथ सहनशक्ति भी रखने का प्रयास करना चाहिए। मानव जीवन में बुद्धि का बल ग्रहणशक्ति, स्मरणशक्ति हो तो आदमी का अच्छा विकास हो सकता है।
आदमी के जीवन में अनेक प्रकार की स्थितियां आ सकती हैं। इन स्थितियों में जितना समता भाव हो और साथ में धर्म-ध्यान चलता रहे तो वर्तमान जीवन के साथ-साथ आगे का जीवन भी कल्याणकारी हो सकता है। इस अधु्रव-अशाश्वत मानव जीवन में धर्म की साधना और ज्ञान प्राप्ति करने आदि का प्रयास हो तो आदमी दुःखों से छुटकारा पा सकता है।
छत्तर प्राथमिकशाला की ओर से प्रिंसिपल श्री भावेश भाई संघाणी ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।
सोशल मीडिया पर तेरापंथ को फॉलो करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
Youtube
https://www.youtube.com/c/terapanth