भारत का विभाजन एक ऐसा ऐतिहासिक प्रश्न है, जिसकी टीस आज भी देशवासियों के मन में मौजूद है। अक्सर यह सवाल उठता है कि आखिर बंटवारे की ज़रूरत क्यों पड़ी? भारत और पाकिस्तान की भाषाएं, संस्कृति, रहन-सहन और रीति-रिवाजों में काफी समानताएं हैं। इसके बावजूद धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा हुआ और इसका कारण मुख्य रूप से हिंदू-मुस्लिम विवाद को माना गया। मोहम्मद अली जिन्ना को इस विभाजन का प्रमुख जिम्मेदार ठहराया गया, वहीं सांप्रदायिकता की बढ़ती लहर ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। हालांकि, उस समय कई नेता ऐसे भी थे, जिन्होंने बंटवारे का विरोध किया था। उन्हीं में से एक थे डॉ. भीमराव आंबेडकर, जो न केवल भारतीय संविधान के निर्माता थे, बल्कि उन्होंने भारत विभाजन और सांप्रदायिकता पर भी अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए।
डॉ. आंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ से उनके विचारों को विस्तार से समझा जा सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब कनाडा, स्विट्जरलैंड और जर्मनी जैसे देशों में विभिन्न संस्कृतियों और पहचानों के लोग एक साथ रह सकते हैं, तो भारत में ऐसा क्यों संभव नहीं हो सकता? उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि हिंदू और मुस्लिम समुदायों को अलग राष्ट्र मानने के बावजूद, क्या वे एक ही देश में शांति से नहीं रह सकते?
डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ‘इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदू और मुसलमानों के बीच कई तौर-तरीके, सामाजिक और धार्मिक रिवाज समान हैं। वहीं कुछ रीति-रिवाज ऐसे भी हैं, जो पूरी तरह धर्म पर आधारित हैं और दोनों समुदायों में भिन्नता उत्पन्न करते हैं। सवाल यह है कि किस पक्ष को अधिक महत्व दिया जाए। अगर समानताओं पर ध्यान दिया जाए, तो दो राष्ट्रों की आवश्यकता ही समाप्त हो जाती है। लेकिन यदि हम भिन्नताओं पर जोर देते हैं, तो दो राष्ट्रों की मांग स्वाभाविक प्रतीत होती है।’
वे आगे कनाडा का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘अगर मान भी लिया जाए कि भारत के मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं, तो क्या भारत ही ऐसा पहला देश होगा जहां दो राष्ट्र एक साथ रहते हैं? कनाडा का क्या? वहां अंग्रेज़ और फ्रेंच दोनों रहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ और डच साथ रहते हैं। स्विट्जरलैंड में जर्मन, फ्रेंच और इटालियन समुदाय एक साथ रहते हैं। तो क्या वहां किसी ने बंटवारे की मांग की?’
डॉ. आंबेडकर का यह तर्क स्पष्ट करता है कि वे सांप्रदायिक आधार पर विभाजन के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने इस विचार का भी विरोध किया कि अलग धार्मिक पहचान होने का अर्थ यह हो कि साथ नहीं रहा जा सकता।
उनकी पुस्तक में एक और गहरा सवाल उठाया गया था:
‘जब अन्य देश विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और धर्मों के बावजूद एक संविधान के अंतर्गत रह सकते हैं, तो भारत में यह असंभव क्यों है? क्या हिंदू और मुसलमान एक ही देश में, एक संविधान के तहत शांतिपूर्वक नहीं रह सकते?’
डॉ. आंबेडकर ने उस समय चल रही सांप्रदायिक राजनीति और विभाजन की मांग पर गंभीर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा कि मुसलमानों का यह डर कि हिंदुओं के साथ रहने से उनकी संस्कृति और पहचान खत्म हो जाएगी, पूरी तरह अनुचित है। यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक समझदारी दिखाई जाती, तो भारत को विभाजन से बचाया जा सकता था।
निष्कर्षतः, डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह दृष्टिकोण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस दौर में था। उनका मानना था कि सांस्कृतिक विविधता के बावजूद एकता संभव है, और भारत को भी कनाडा या स्विट्जरलैंड की तरह विविधता में एकता का आदर्श बनाना चाहिए था।