बिरसा मुंडा, एक ऐसी शख्सियत जिसने जिंदगी तो मात्र 25 साल की जी। लेकिन इस छोटी सी जिंदगी में उन्होंने इतने बड़े-बड़े काम किए कि आज बिरसा मुंडा को भगवान कहा जाता है। आज बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती है। उनका छोटा सा जीवनकाल आज एक मिसाल है। इसी जीवनकाल में उन्होंने ‘उलगुलान’ नाम का आंदोलन चलाया था। यह आंदोलन आदिवासियों का शोषण रोकने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ हुआ था। आइए जानते हैं कि आखिर क्या था बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को आज के झारखंड के रांची जिला स्थित उलिहातु गांव में हुआ था। बिरसा मुंडा की मां का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना था। उलगुलान आंदोलन की जड़ में था अंग्रेजों का वह काला कानून, जिसे लागू करके आदिवासियों की जमीन हड़पी जा रही थी। असल में अंग्रेजों ने ‘इंडियन फॉरेस्ट ऐक्ट 1882’ लागू किया। इस ऐक्ट को लागू करके आदिवासियों से जंगल का अधिकार छीन लिया गया। अंग्रेजों ने जमींदारी लागू कर दी और आदिवासियों के गांवों के खेतों को जमीदारों और दलालों में बांट दिया। इसके बाद आदिवासियों का शोषण होने लगा।
बिरसा मुंडा ने इसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। इस आंदोलन को नाम दिया गया, ‘उलगुलान’, जिसका अर्थ है जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी। भगवान बिरसा ने इस दौरान नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ यानी हमारा देश-हमारा राज। इस आंदोलन में हजारों आदिवासी बिरसा मुंडा के साथ थे। आदिवासियों ने इस आंदोलन में हथियार भी उठा रखा था। हालांकि अंग्रेजों ने विद्रोह को दबा दिया, लेकिन आदिवासी समाज में इससे काफी जागरुकता आई। बिरसा मुंडा ने आंदोलन तो किए ही, साथ ही समाज सुधार की दिशा में भी काम किया। उन्होंने अपने लोगों ने नशा छोड़ने की भी गुहार लगाई। इसके अलावा, अंधविश्वास और धार्मिक रीति-रिवाजों की बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई।
बिरसा का मानना था कि इन कुरीतियों के कारण ही आदिवासी समाज बाहरी शक्तियों के शोषण का शिकार हो रहा है। उन्होंने अपने अनुयायियों से आग्रह किया कि वे नशा छोड़ें, साफ-सुथरा जीवन जीएं, और अपने आत्म-सम्मान को बनाए रखें। उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का इस्तेमाल कर आदिवासियों को कमजोर किया जा रहा है। इसलिए उन्हें अपने पारंपरिक धर्म और विश्वासों की ओर लौटना चाहिए। अंग्रेजों ने 9 जून 1900 को उन्हें गिरफ्तार करके रांची जेल में बंद कर दिया। इसी जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई।