दस महाविद्याओं में सप्तमी महाविद्या के रूप में पूज्यनीय देवी धूमावती का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। इनकी जयंती ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रद्धा व भावनाओं के साथ मनाई जाती है। ऋग्वेद में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। माता धूमावती के अन्य प्रसिद्ध नाम हैं – ज्येष्ठा, अलक्ष्मी एवं निर्ऋति।
देवी धूमावती का स्वरूप अत्यंत गंभीर, विमर्शपूर्ण और वैराग्य का प्रतीक है। इनके दो भुजाएं हैं – एक में सूप है और दूसरी वरमुद्रा अथवा ज्ञानमुद्रा में है। यह स्वरूप माता का विधवा, कुरूप, विकट, उलझे केशों, दुबले-पतले शरीर, श्वेत वस्त्रों में, तथा बिना अश्व के रथ पर आरूढ़ रूप में प्रतिष्ठित है। रथ के शीर्ष पर कौआ, जो अपशकुन का नहीं अपितु बोध और तत्त्वज्ञान का प्रतीक माना जाता है, ध्वज स्वरूप विद्यमान रहता है।
नामकरण की पौराणिक कथा
माता धूमावती के प्राकट्य की एक कथा यह है कि जब सती के पिता राजा दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, तब उन्होंने भगवान शिव तथा सती को आमंत्रित नहीं किया। यह जानकर सती को पहले तो पीड़ा हुई, किंतु फिर उन्होंने यह सोचकर कि पुत्री को पिता के घर जाने हेतु निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती, वहाँ जाने का निश्चय किया। शिवजी ने उन्हें समझाया कि विवाहोपरांत बिना आमंत्रण के जाना उचित नहीं होता, किंतु सती दृढ़ संकल्पित थीं।
जब वे यज्ञ मंडप पहुँचीं, वहाँ राजा दक्ष ने उनका अपमान किया और भगवान शिव की निंदा की। इससे आहत होकर सती ने यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया। उनकी देह जब अग्नि में भस्म हुई, तब उससे जो धुआं निकला, उसी से धूमावती देवी का प्राकट्य हुआ। यह धुआं नारी की आंतरिक व्यथा, अपमान, क्रोध और वैराग्य का प्रतीक बना।
एक अन्य कथा
एक अन्य प्रसंग में वर्णित है कि माता पार्वती को एक बार तीव्र भूख लगी। कैलाश में उस समय अन्न का अभाव था। वे भगवान शिव के समीप गईं, किंतु वे समाधिस्थ थे। भूख की तीव्रता से व्याकुल होकर माता पार्वती ने स्वयं भगवान शिव को ही निगल लिया। शिव के कंठ में विष होने के कारण माता के मुख से धुआं निकलने लगा और वे विकृत तथा जर्जर हो गईं। जब उन्होंने प्रार्थना की, तब शिवजी उनके शरीर से पुनः बाहर आए और कहा – “तुमने अपनी क्षुधा की तृप्ति के लिए पति को निगल लिया, अतः आज से तुम धूमावती नाम से पूजी जाओगी और तुम्हारा यह स्वरूप विधवा के रूप में जाना जाएगा।”
इस कारण से देवी धूमावती की पूजा विवाहित स्त्रियों द्वारा नहीं की जाती। वे रोग, दारिद्र्य एवं शत्रु बाधाओं से मुक्तिदायिनी मानी जाती हैं।
साधना, पूजन एवं सिद्धपीठ
धूमावती देवी की पूजा पश्चिम दिशा की ओर मुख करके की जाती है। तांत्रिक साधना में इन्हें उच्चाटन, केतु दोष निवारण, तथा शत्रु परास्ति हेतु आराध्य माना गया है। इन्हें मीठा नहीं, अपितु नमकीन अथवा तीखा भोग अर्पित किया जाता है। पूजा में रंगीन वस्त्रों अथवा पुष्पों का वर्जन है – केवल श्वेत अथवा गंभीर धूसर रंगों का प्रयोग किया जाता है।
भारतवर्ष में धूमावती माता के प्रमुख सिद्धपीठों में दतिया (मध्यप्रदेश) स्थित मंदिर प्रमुख है। इसके अतिरिक्त काशी (वाराणसी) में धूमावती देवी का मंदिर तथा असम के कामाख्या मंदिर परिसर में स्थित देवी का सिद्ध स्थान भक्तों के लिए परम पूजनीय है।
माता धूमावती का यह स्वरूप तप, त्याग, वैराग्य, और अंतःकरण की पीड़ा का जीवंत प्रतीक है। उनकी उपासना से भक्त को आंतरिक बल, अदृश्य विपत्तियों से सुरक्षा, तथा अध्यात्म का गंभीर बोध प्राप्त होता है। वे तिरस्कृत, त्यागी, किंतु दिव्य हैं — नारी के उस स्वरूप का प्रतीक, जो सब कुछ सहकर भी मौन में शक्ति का संचार करती है।