संकट के क्षण ही किसी राष्ट्र, समाज और व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन करते हैं। जब दुश्मन शातिरता की सारी सीमाएं लांघ चुका हो, जब निर्दोषों की हत्या रुधिर की धार बनकर बह रही हो, तब उत्तर भी वज्र बनकर ही उतरता है। भारतीय सेना और नेतृत्व ने जिस निर्भीकता व मर्मभेदी शौर्य से पाकिस्तान के आतंकी दुस्साहस का संहारक उत्तर दिया, वह केवल सराहना नहीं—अपितु गौरवगाथा है। पहलगाम की रक्तरंजित पीड़ा ने भारतवर्ष के जनमानस को झकझोर दिया था। उस क्षण राष्ट्र का हृदय प्रतिशोध की ज्वाला में धधक उठा था—न्याय नहीं, प्रतिकार चाहिए था।
पाकिस्तान, वह राष्ट्र नहीं, आतंक की प्रयोगशाला है, जो अपने जन्म के क्षण से ही बारूद की गोद में खेलता आया है। भारत ने इस बार न केवल उसकी सीमा लांघी, अपितु उसकी नापाक छांव में पलते आतंकी अड्डों को राख में बदल दिया। यह केवल सैन्य कार्रवाई नहीं थी, यह उस ऐतिहासिक धैर्य की निर्णायक परख थी, जो अब धैर्य की सीमा पार कर चुका था।
हम वह देश हैं, जिसने 26/11 के बाद केवल मौन साधा था। उस मौन ने दुश्मन के हौसले बुलंद किए। किंतु ऑपरेशन सिंदूर ने परंपरा तोड़ी—इस बार बंदूकें बोलीं, और उन्होंने दुश्मन के कलेजे में शून्य उकेर दिया। जब भारत के आकाश में उसके ड्रोन घुसे, तो हमने उन्हें वहीं गिरा दिया, और फिर घुसकर बताया कि “अबकी बार खैर नहीं।” यह शांति की नहीं, निर्णायक उत्तर की बेला थी।
और तभी—जैसे हर युग में होते हैं—काले अंधेरे में टिमटिमाते चिरागों की भाँति कुछ नकली उदारवादी और छद्म शांति-दूत जाग उठे। “से नो टू वॉर” का जाप शुरू हो गया। जिनके कंठ अभी तक प्रतिकार की मांग कर रहे थे, वे ही अचानक अहिंसा के मसीहा बन बैठे। पीड़ित भारतीयों को भूल, उन्हें पाकिस्तानी नागरिकों की चिंता सताने लगी। क्या यह संवेदना है, या मानसिक पतन?
ऐसे तत्वों को स्मरण दिलाना आवश्यक है कि भारत ने जितना आघात विदेशी आक्रांताओं से नहीं सहा, उससे कहीं अधिक घाव अपनों की निष्क्रियता, भ्रम और पलायनवादी मानसिकता से मिले हैं। क्या यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं कि अंग्रेजों ने भारत को उन्हीं सिपाहियों से दबाया, जिनका रक्त भारतीय था? इतिहास के ये पाठ अब हमें नई भाषा में पढ़ने होंगे—जिसमें किंकर्तव्यविमूढ़ता नहीं, निर्णायकता हो।
आज जिन लिबरल विचारकों की कलम शांति के गीत गा रही है, उनकी स्याही दरअसल स्वार्थ, भ्रम और अवसरवाद से भरी हुई है। उन्हें यह भलीभांति ज्ञात है कि जिस उदारवाद, स्वतंत्रता और पंथनिरपेक्षता की वे दुंदुभि बजाते हैं, वह उन्हें पाकिस्तान जैसे असहिष्णु राष्ट्र में नहीं, केवल भारत में ही उपलब्ध है। भारत में ही उन्हें यह छूट है कि वे राष्ट्रविरोधी वक्तव्यों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह सकें।
किन्तु जब राष्ट्र अस्तित्व की निर्णायक घड़ी में खड़ा हो, तब ऐसी “स्वतंत्रता” शत्रु की छाया बन जाती है। यह भूलना घातक है कि जब रणभूमि में सेना आगे बढ़ रही हो, तब पीछे से उठी एक गलत आवाज भी मनोबल की रीढ़ तोड़ सकती है।
युद्ध केवल मोर्चे पर नहीं लड़े जाते—वे विचारों की भूमि पर भी लड़े जाते हैं। जब सेनाएं अग्रिम पंक्ति में खून बहा रही हों, तब शब्दों की आड़ में पराजय के बीज बोना राष्ट्रद्रोह से कम नहीं। और यह स्मरणीय है कि राम और कृष्ण केवल शांति के प्रतीक नहीं थे—वे रणचंडी के वरद पुत्र थे। उन्होंने तब युद्ध किया, जब न्याय की अंतिम आवाज को भी कुचलने का प्रयास हुआ।
महाभारत का यथार्थ यही है कि युद्ध से भागना अधर्म को निमंत्रण देना है। गीता युद्ध की प्रेरणा है, पलायन की नहीं। श्रीकृष्ण ने युद्ध से विमुख पार्थ को इसलिए धिक्कारा, क्योंकि युद्ध टालना विकल्प नहीं, दायित्व बन गया था।
“शांति की बात” तब की जानी चाहिए, जब शत्रु शांति चाहता हो। पर जब सामने खड़ा पाकिस्तान, हमास की भाषा बोल रहा हो, जब वह निर्दोषों का रक्त बहाकर “वार” को आमंत्रण दे चुका हो, तब “नो टू वॉर” कहना कायरता नहीं, आत्मघात है।
जो समाज युद्ध से डरता है, वह इतिहास में मिटा दिया जाता है। पर भारत वह राष्ट्र है, जो युद्ध से अपने भाग्य का नवलेखन करता है। यह भूमि बुद्ध की भी है और रणचंडी की भी। यहाँ त्याग और तेज, करुणा और क्रोध, दोनों का समन्वय है।
शांति एक मूल्य है, किंतु केवल तब तक, जब तक वह आत्मसम्मान को न लांघे। जब राष्ट्र का अस्तित्व दांव पर हो, तब युद्ध केवल विकल्प नहीं, धर्म बन जाता है। ऐसे क्षणों में जयकार भी रण का हिस्सा होती है। वह केवल स्वर नहीं, सेना के हृदय में गूंजता मंत्र होता है।
इसलिए जो तत्व आज शांति की मशाल उठाए दिख रहे हैं, उन्हें पहचानिए, याद रखिए। इनकी “संवेदनशीलता” दरअसल राष्ट्रविरोध की चुप्पी है। इन्हें अस्वीकार करिए, क्योंकि राष्ट्र के स्वत्व की रक्षा करना हमारी प्रथम और अंतिम जिम्मेदारी है।
जय हिंद