परशुराम जी का प्रारम्भिक नाम ‘राम’ था, जो कालांतर में महादेव से परशु प्राप्त होने के बाद परशुराम हो गया।… उनका समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से भरा हुआ है। सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र व प्रदोष काल में महान शिव भक्त भृगुकुल शिरोमणि महर्षि परशुराम जी का अवतरण हुआ था। समाज को शास्त्र और शस्त्र के समन्वय का अनूठा सूत्र देने वाले भगवान परशुराम ऋषियों के ओज और क्षत्रियों के तेज दोनों का अद्भुत संगम माने जाते हैं। कारण कि उनके माता-पिता, दोनों ही विलक्षण सिद्धियों से सम्पन्न थे। जहां उनके ब्राह्मण पिता जमदग्नि को अग्नि तत्व पर नियंत्रण पाने की सिद्धि हासिल थी, वहीं क्षत्रिय कुल में जन्मीं मां रेणुका को जलतत्व पर नियंत्रण पाने का वरदान महर्षि अगत्स्य से मिला था। मां-पिता के इन दिव्य गुणों के साथ जन्मे परशुराम जी का प्रारम्भिक नाम ‘राम’ था, जो कालांतर में महादेव से परशु प्राप्त होने के बाद परशुराम हो गया।
परशुराम जी की गणना महान पितृभक्तों में होती है। उनका समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से भरा हुआ है। वे न सिर्फ समस्त दिव्यास्त्रों के संचालन में पारंगत थे, बल्कि योग, वेद, नीति तथा तंत्र कर्म में भी निष्णात थे। अपने समय के शस्त्रविद्या के महानतम गुरु परशुराम ने ही द्वापर युग में भीष्म, द्रोणाचार्य व कर्ण को भी युद्धविद्या का महारथी बनाया था। प्राचीन भारतीय मार्शल आर्ट ‘कलरीपायट्टु’ व ‘वदक्कन कलारी’ के जनक भी वे ही माने जाते हैं। यही नहीं, जैसे देवनदी गंगा को धरती पर लाने का श्रेय राजा भगीरथ को जाता है, वैसे ही ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को धरती पर लाने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। पौराणिक उद्धरणों के अनुसार केरल, कन्याकुमारी व रामेश्वरम जैसे दिव्य तीर्थों की स्थापना भगवान परशुराम ने ही की थी।
कहा जाता है कि उन दिनों राजमद में मदांध महिष्मती के हैहयवंशीय क्षत्रिय शासक कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन के क्रूर अत्याचारों से चारों ओर त्राहि त्राहि मची हुई थी। शक्ति के मद में चूर सहस्त्रार्जुन एक दिन ऋषि जमदग्नि के आश्रम में आ पहुंचा। ऋषि ने गोमाता कामधेनु की कृपा से अपने राजा का सेना समेत भव्य स्वागत किया। यह देख कार्तवीर्य ललचा गया और कामधेनु मांग बैठा। ऋषि जमदग्नि के इनकार से कार्तवीर्य ने क्रोध में भरकर आश्रम पर धावा बोलकर उसे पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तथा जमदग्नि पर हमला बोलकर उन्हें भी मार डाला। जब इसका पता परशुराम जी को चला तो उनके क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने समूची पृथ्वी से क्षत्रिय राजाओं के संहार की शपथ उठा ली और महिष्मती पर धावा बोलकर अपने परशु से कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन को उसके समूचे कुल समेत मृत्युलोक पहुंचा दिया।
अक्षय तृतीया को जन्म लेने के कारण उनकी शस्त्र शक्ति भी अक्षय थी और शास्त्र-संपदा भी। उनका परशु अपरिमित शस्त्र-शक्ति का प्रतीक था, जो उनको भगवान शंकर ने शस्त्र विद्या की परीक्षा में सफल होने पर पारितोषिक रूप में प्रदान किया था। जहां ‘राम’ मर्यादा व लोकनिष्ठा का पर्याय माने जाते हैं, वहीं परशु समेत राम ‘परशुराम’अनीति विमोचक शस्त्रधारी।