भारतीय संस्कृति में प्रतीकात्मकता का विशेष महत्व रहा है। प्रत्येक प्रतीक एक आध्यात्मिक गूढ़ार्थ लिए हुए है। ऐसा ही एक दिव्य प्रतीक है — डमरु, जो न केवल एक वाद्य यंत्र है, बल्कि ब्रह्मांड की ध्वनि और शिव की चेतना का स्वरूप भी है। विशेषकर जब यह डमरु महादेव शिव के हाथ में हो — तब यह बन जाता है सृष्टि, लय और प्रलय का घोष।
डमरु का रूप: एक प्रतीकात्मक संरचना
डमरु दो विपरीत दिशाओं में फैले हुए दो गोलाकार छोरों और बीच में संकुचित कमर वाला एक वाद्य यंत्र है। इसका यह आकार दर्शाता है:
“द्वन्द्व का संतुलन — सृजन और संहार, स्त्री और पुरुष, नाद और मौन”।
यह आकार आनंद और विकेंद्रण, ध्वनि और मौन, तथा प्रकाश और अंधकार के बीच समरसता का संकेत करता है।
डमरु और शिव: पौराणिक संबंध
शिव का तांडव और डमरु का नाद
शिव के तांडव नृत्य के साथ डमरु की ध्वनि एक अनहद नाद उत्पन्न करती है, जिससे सृष्टि का आरंभ होता है। तांडव केवल विनाश नहीं, बल्कि सृजन और पुनर्निर्माण का भी प्रतीक है।
नाट्य शास्त्र में कहा गया है:
“नादब्रह्म हरः शिवः, यस्य डमरु निनादः सृष्टिक्रमाय सञ्जातः।”
(नाद ही ब्रह्म है, और शिव ही उसका स्वरूप हैं; जिनके डमरु की ध्वनि से सृष्टि प्रारंभ हुई।)
महेश्वर सूत्र: शिव के डमरु से उत्पन्न ज्ञान
पाणिनि के संस्कृत व्याकरण में वर्णित 14 महेश्वर सूत्र भगवान शिव द्वारा डमरु बजाने पर प्रकट हुए माने जाते हैं:
“अइउण्। ऋऌक्। एओङ्। ऐऔच्। हयव्रट्… (आदि)”
यह मान्यता दर्शाती है कि वाणी, व्याकरण और ज्ञान — सबकी उत्पत्ति शिव के डमरु से ही हुई।
लोककथाएं और श्रद्धा
काशी की कथा
वाराणसी में प्रचलित एक लोककथा के अनुसार, एक बार सृष्टि में अंधकार छा गया और ध्वनि लुप्त हो गई। तब भगवान शिव ने अपने डमरु से एक विशेष नाद उत्पन्न किया, जिससे ब्रह्मा को सृष्टि रचने की प्रेरणा मिली। तभी से काशी को “नादनगरी” भी कहा जाने लगा।
योग और ध्यान में डमरु का महत्व
योगशास्त्र में डमरु की ध्वनि को “बिंदु और नाद” का संगम माना गया है। यह साधक के भीतर ऊर्जा और चैतन्य का संचार करती है।
हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है:
“नादानुसंधानसम्भूतो योगी परं पदं लभते।”
(नाद की साधना करने वाला योगी परम स्थिति को प्राप्त करता है।)
शिव के हाथ में डमरु — क्या दर्शाता है?
- दायाँ हाथ (अग्नि) — संहार का प्रतीक।
- बायाँ हाथ (डमरु) — सृजन का प्रतीक।
इन दोनों के बीच शिव का तांडव — प्रलय और पुनः आरंभ का चिरंतन चक्र।
डमरु: केवल वाद्य नहीं, ब्रह्मांडीय सत्य का घोष
डमरु हमें स्मरण कराता है कि ध्वनि से ही सब कुछ है। ब्रह्मांड की पहली कंपन, पहली चेतना — नाद के रूप में आई। शिव के डमरु से प्रकट हुआ नाद ही:
- सृजन का बीज है,
- ज्ञान का स्रोत है,
- और आत्मा की पहचान है।
“शिवं नादं, नादं ब्रह्म।”
(शिव ही नाद हैं, और नाद ही ब्रह्म है।)
समापन: शिव और डमरु — नाद में ही नित्य
शिव का डमरु हमें यह सिखाता है कि जब संसार मौन हो जाए, तब एक छोटी-सी ध्वनि भी ब्रह्मांड को जाग्रत कर सकती है। डमरु की हर थरथराहट, हर कंपन, हर नाद — जीवन के मूल स्वरूप को प्रकट करती है। शिव केवल संहार के देवता नहीं, सृजन और स्वर के आदि स्रोत हैं।