हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार सात अंशावतार ऐसे हैं, जो अमर हैं। ये सात चिरंजीवी दिव्य शक्तियों से संपन्न हैं और ऐसी मान्यता है कि ये आज भी पृथ्वी पर मौजूद हैं। सात चिरंजीवियों में परशुराम, बलि, विभीषण, हनुमान, महर्षि वेदव्यास, कृपाचार्य और अश्वत्थामा हैं।
इन चिरंजीवियों में से एक परशुराम बेहद क्रोधी स्वभाव के माने जाते हैं। लेकिन उन्होंने अत्याचारी और अन्यायी राजाओं के खिलाफ ही शस्त्र उठाए। एक आदर्शवादी और न्यायप्रिय राजा के रूप में राम से मिलने के पश्चात वे महेंद्र गिरि पर्वत पर तपस्या करने चले गए। परशुराम भगवान विष्णु के अंशावतार माने जाते हैं। ऋषि जमदग्नि और रेणुका के आज्ञाकारी पुत्र के रूप में वे अद्भुत हैं। इसी प्रकार राजा बलि दैत्यराज होने के बावजूद अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। विरोचन और सुरुचि के पुत्र बलि की तीन पत्नियां अशना, विंध्यावली और सुदेष्णा थीं। नर्मदा के उत्तरी तट पर मृगुकच्छ नामक स्थान पर अश्वमेध यज्ञ करने वाले बलि ने अपने बाहुबल से तीनों लोक जीत लिए थे। इतना होने पर भी ऐसे दानवीर कि अपने वचन की रक्षा के लिए उन्होंने गुरु शुक्राचार्य के विरुद्ध जाकर ‘वामन’ अवतार विष्णु को तीन पग भूमि दान कर दी थी।
विद्वान और राष्ट्रभक्त विभीषण को ‘घर का भेदी लंका ढाए’ जैसे मुहावरे के साथ याद किया जाता है। पर विभीषण ने लंका के हित में रावण को बहुत समझाया कि वे माता सीता राम को लौटा दें। रावण ने उनकी एक नहीं सुनी और अपमानित कर उन्हें लंका से निकाल दिया। विभीषण ने राष्ट्रहित के लिए रावण का विरोध किया और भाई तथा कुल के द्रोही होने के कलंक को माथे पर ले मातृभूमि के हित में कार्य करते हुए सत्य का साथ दिया।
वहीं, महर्षि वेदव्यास महर्षि पराशर और धीवर कन्या सत्यवती के पुत्र थे। अपना रंग काला होने के कारण एक ओर वह कृष्ण कहलाए, तो दूसरी ओर यमुना नदी के बीच एक द्वीप पर जन्म होने के कारण उन्हें द्वैपायन भी कहा जाता है। इनका एक नाम कृष्णद्वैपायन और बादरायणि भी है। यही द्वैपायन अपने अथाह ज्ञान के साथ-साथ पुराण, महाभारत तथा वेदांत सूत्र की रचना के कारण महर्षि वेदव्यास के रूप में सम्मानित हुए। ‘महाभारत’ को ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है। माता सत्यवती के कहने पर इन्होंने विचित्रवीर्य्य की मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी अंबिका, अंबालिका और दासी से नियोग द्वारा तीन पुत्रों की उत्पत्ति की, जिन्हें धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के रूप में जाना जाता है।
कुरुवंश के कुलगुरु के रूप विख्यात कृपाचार्य ऋषि होने के साथ-साथ अद्वितीय योद्धा भी थे। इन्होंने कौरवों-पांडवों को अस्त्र विद्या सिखाई। इनकी बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ। महाभारत का युद्ध इन्होंने कौरवों की ओर से लड़ा था। कृपाचार्य परिस्थिति के अनुसार अपने को ढालने के लिए जाने जाते हैं, इसलिए ये कौरवों की ओर से लड़ने और पराजित होने के बावजूद पांडवों के कुलगुरु के पद पर आसीन हुए।
गुरु द्रोणाचार्य और गौतमी के पुत्र अश्वत्थामा प्रचंड योद्धा होने के साथ-साथ अपने क्रोध और अहंकार के लिए भी जाने जाते हैं। इन्होंने महाभारत का युद्ध कौरवों की ओर से लड़ा। अश्वत्थामा ने रात के अंधकार में युद्ध के नियमों को तोड़ते हुए पांडव शिविर में जाकर पांडवों के धोखे में उनके पांच पुत्रों का वध कर दिया था। इस अपराध के लिए कृष्ण ने उनके मस्तक से मणि निकालकर रिसते हुए घाव के साथ अनंतकाल तक भटकने का श्राप दिया था।
रुद्र के ग्यारहवें अवतार और वानरराज केसरी तथा अंजनी के पुत्र हनुमान का जन्म ही भगवान राम की सेवा के लिए हुआ था। सेवक व सेवा का जैसा आदर्श हनुमान ने प्रस्तुत किया है, वह दुर्लभ है।