भीषण गर्मी के दिनों में जल की उपलब्धता के लिए लोकदेवता महादेव की जटा से गंगा का अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को धरती पर हुआ। कथा है कि राजा भगीरथ अपने 60 हजार अभिशप्त पूर्वजों के उद्धार के लिए राजा से ऋषि हो गए। ऋषि होते उन्होंने गंगा-अवतरण में पूर्वजों के प्रयासों पर जरूर मनन किया होगा। भगीरथ की दृष्टि पूर्वजों के उद्धार के साथ दसों दिशाओं में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उत्थान पर भी जाती लग रही है, क्योंकि गंगा धरती पर आना नहीं चाहती थीं।
मां गंगा को मालूम था कि उनकी पवित्रता और धवलता स्वर्गलोक की तरह नहीं रह पाएगी। लेकिन, भगीरथ के व्यापक लोक-कल्याण की भावना को देखते हुए महादेव ने गंगा को जब आदेश दिया, तब वह धरती पर आने के लिए बाध्य हो गईं। आध्यात्मिक दृष्टि से साधक, पूजक या उपासक जब कभी अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने के लिए अभ्यर्थना करता है तो ‘दिक्-बंध’ (दिशाओं की अनुकूलता) मुद्रा में दसों दिशाओं से कृपा की वर्षा की कामना करता है। इस दृष्टि से दसों-दिशाओं में गंगा के व्यापक लोकहितकारी पथ निर्माण का दिवस है गंगा दशहरा।
शिव-तांडव स्रोत में गंगा के पृथ्वी पर आगमन के चित्रण में स्पष्ट उल्लेख है कि आग की तरह जलधारा ‘धक-धक’ कर रही है। स्वाभाविक है, मानव की आवश्यकता से अधिक जल की ऊर्जा को धरती के लोग सहन न कर पाते। ऐसी स्थिति में भगीरथ की सहायता करते प्रतीत होते हैं जह्नु ऋषि। गंगा की इसी असीम ऊर्जा से ऋषि का आश्रम तहस-नहस होना और ऋषि द्वारा गंगा को पी जाना, जल को मानवोपयोगी बनाने का कदम कहा जा सकता है। भगीरथ के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से पृथ्वी को सुसंपन्न करने की अभियांत्रिकी के महाभियान में ऋषि जह्नु के सहयोग से जिन मार्गों से गंगा प्रवाहित हुईं, उन सभी उत्तर भारतीय क्षेत्रों पर देवाधिदेव की असीम कृपा बरसती है, क्योंकि इन इलाकों के लोग कण-कण में शंकर की छवि निहारते हैं।
पंचभूतों में वायु तत्व की कमी होने पर सामान्यत: मनुष्य तीन से पांच मिनट ही जीवित रह सकता है, जबकि जल के अभाव में 10 घंटे के अंदर समस्या हो जाती है। वहीं भोजन के बिना लगभग 60 दिन मनुष्य रह सकता है। इसीलिए ‘जल ही जीवन है’ का पाठ भी पढ़ाया जाता है।
धरती का जल हो या मनुष्य का जल, उसकी शुद्धता और पवित्रता आवश्यक है। ‘जैसा पानी वैसी बानी’ मान्यता के गहरे अर्थ हैं। मनुस्मृति के अनुसार, दस इंद्रियों से संचालित मनुष्य की परिधि में दस तरह के पापों के प्रवेश की संभावना बनी रहती है। इन दसों पापों को हरने के कारण गंगा-अवतरण को गंगा-दशहरा नाम दिया गया है। दस पापों में कायिक (शारीरिक) के अंतर्गत दूसरे का हिस्सा लेना, शास्त्र वर्जित कार्य करना और पराई स्त्री पर कुदृष्टि रखना बताया गया है। वाचिक पापों में कटु बोलना, झूठ बोलना, परोक्ष में किसी की निंदा करना तथा निष्प्रयोज्य बातें करना शामिल है। इसी तरह मानसिक पापों में दूसरे के धन का छल-छद्म से लेने का विचार बनना, मन से दूसरों के अनिष्ट का चिंतन करना और नास्तिक भाव रखना शामिल है। मां गंगा की विधिवत आराधना, स्नान व सेवन विकारों से मुक्ति का सरल रास्ता है। इसीलिए वेदों में ‘गंगे तव दर्शनात् मुक्ति:’ का उद्घोष किया गया है, जिसे चिकित्सा वैज्ञानिक भी मानते हैं।