9 मई 2025 — यह तारीख इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज होगी। इस दिन पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि जिहाद के नाम पर अब मदरसों के छात्रों को इस्तेमाल किया जाएगा। यह सिर्फ एक राजनीतिक बयान नहीं, एक नैतिक पतन का ऐलान था। और इससे भी ज़्यादा चिंताजनक है — इस पर दुनिया की चुप्पी।
भारत वर्षों से वैश्विक समुदाय को यह चेताता आया है कि पाकिस्तान आतंकवाद को राज्य-नीति के रूप में इस्तेमाल करता है। लेकिन बार-बार सबूतों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मंच पर संकोच बना रहा। अब जबकि पाकिस्तान ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि वह अपने बच्चों को ‘जिहाद’ के लिए तैयार कर रहा है, क्या यह समय नहीं आ गया है कि दुनिया अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करे?
जब मदरसे हथियार बन जाएं
मदरसे, जो कभी ज्ञान और धार्मिक शिक्षण के केंद्र थे, उन्हें आतंकवाद की फैक्ट्री में तब्दील करना केवल पाकिस्तान की सामाजिक विफलता नहीं है — यह एक सभ्यता विरोधी अपराध है। बच्चों की मासूमियत को कुचलकर, उन्हें बारूद का सामान बनाना सिर्फ मानवाधिकारों का हनन नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियाँ उड़ाना है।
यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान ने ऐसा किया हो। अफगानिस्तान में 1980 के दशक के सोवियत-विरोधी संघर्ष में और 1990 के दशक में कश्मीर में, पाकिस्तान ने ऐसे ही हथकंडों का प्रयोग किया। लेकिन इस बार अंतर यह है कि अब यह एक खुला स्वीकारोक्ति-पत्र है।
भारत के लिए दुविधा की घड़ी
इस स्थिति ने भारत को एक दुविधा में डाल दिया है। एक ओर सीमाओं की सुरक्षा अनिवार्य है, दूसरी ओर दुश्मन की ओर से भेजे गए “लड़ाके” यदि बच्चे हों, तो जवाब कैसे दिया जाए? भारत के लिए यह युद्ध केवल भू-राजनीतिक नहीं, नैतिक परीक्षा भी है।
भारत कभी भी बच्चों पर गोली नहीं चला सकता — और शायद पाकिस्तान इसी नैतिक बंधन का दुरुपयोग करना चाहता है। यह रणनीति न केवल कुटिल है, बल्कि यह युद्ध की मर्यादा और मानवीय संवेदनाओं पर सीधा प्रहार है।
पाकिस्तान की नैतिक विफलता
पाकिस्तान का यह निर्णय उसकी कूटनीतिक और सैन्य विफलता का प्रमाण है। जब कोई राष्ट्र अपने ही बच्चों को युद्ध की भट्टी में झोंकने का निर्णय लेता है, तो यह उसकी आत्मा के क्षरण का संकेत होता है। यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि पाकिस्तान अब न तो युद्ध जीत सकता है, न ही संवाद कर सकता है — उसके पास केवल अव्यवस्था, घृणा और दुष्प्रचार का सहारा बचा है।
वैश्विक समुदाय की ज़िम्मेदारी
यह समय है जब संयुक्त राष्ट्र, यूनिसेफ और अन्य मानवाधिकार संस्थाएं इस विषय पर मुखर हों। बच्चों को युद्ध में झोंकना जिनेवा कन्वेंशन के अंतर्गत युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। यदि दुनिया इस पर आज चुप रही, तो कल यही रणनीति अन्य चरमपंथी संगठनों के लिए नज़ीर बन सकती है।
दुनिया को यह स्पष्ट करना होगा कि आतंकवाद के नाम पर बचपन की बलि स्वीकार्य नहीं है — चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो।
और अंत में… विवेक की वापसी की उम्मीद
“जब नाश मनुज पर छाता है, तो सबसे पहले विवेक मर जाता है।” पाकिस्तान के वर्तमान नेतृत्व को देख कर लगता है, उनका विवेक सचमुच मृतप्राय हो चुका है। लेकिन उम्मीद है कि पाकिस्तान की जनता, उसका नागरिक समाज, उसकी बौद्धिक चेतना — इस बर्बर सोच का विरोध करेगा।
क्योंकि बचपन किसी राष्ट्र की सीमा नहीं देखता, वह सिर्फ सपने देखता है। और जब कोई राष्ट्र अपने ही भविष्य को जलाने लगे — तो शेष विश्व का कर्तव्य बनता है कि वह उस आग को बुझाए।
जय हिंद, जय भारत।