डोनाल्ड ट्रंप ने फिर वह बोला जो उन्हें बोलना नहीं चाहिए था।
इस बार उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर “मध्यस्थता” का प्रस्ताव दे डाला। यह न सिर्फ भारत की संप्रभुता पर असहनीय हस्तक्षेप है, बल्कि एक मित्र कहे जाने वाले राष्ट्र के मुखिया की राजनीतिक अपरिपक्वता का उद्घोष भी है।
कश्मीर पर कोई तीसरा देश—चाहे वह अमेरिका ही क्यों न हो—मुँह भी खोले, यह भारत के लिए अस्वीकार्य है।
क्या ट्रंप भूल गए हैं कि यह वही पाकिस्तान है जो अपने ही मुल्क में आतंक का व्यापार चलाता है? क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं कि भारत ने 2019 में अनुच्छेद 370 समाप्त कर कश्मीर को एक बार और हमेशा के लिए स्पष्ट कर दिया था: यह भारत का अविभाज्य हिस्सा है—न चर्चा का विषय है, न सौदेबाज़ी का।
ट्रंप को यह समझना चाहिए कि भारत अब 90 के दशक का ‘मूक दर्शक’ नहीं। यह 2025 का भारत है—जो बोलता भी है, और जब ज़रूरत पड़े तो बरसता भी है।
ऑपरेशन सिंदूर इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है—भारत अब चेतावनियाँ नहीं देता, सीधा लक्ष्य भेदता है। अगर पाकिस्तान में पल रहे आतंकी ढाँचे आज राख हो चुके हैं, तो उसका उत्तर कूटनीति नहीं, भारतीय सैन्य इच्छाशक्ति है।
और यही इच्छाशक्ति ट्रंप को समझनी होगी।
वे जिस “शांति की मध्यस्थता” की बात कर रहे हैं, वह दरअसल भारत की सुरक्षा नीति पर धूल फेंकने जैसा है। भारत शांति चाहता है, लेकिन कायरता की कीमत पर नहीं। और शांति की पहली शर्त है: पाकिस्तान को आतंक का कारोबार बंद करना होगा।
अगर ट्रंप सच में दुनिया की भलाई चाहते हैं, तो पाकिस्तान को हथियारों की नहीं, सच्चाई की गोली खिलाएं। क्योंकि भारत अब पाकिस्तान की “विक्टिम कार्ड” राजनीति से वाक़िफ़ है—और अब कोई बहाना नहीं सुना जाएगा।
भारत अमेरिका से मित्रता चाहता है, लेकिन झुककर नहीं।
कश्मीर के नाम पर जो राष्ट्र भारत को घेरने की कोशिश करेगा, वह भारत की नई परिभाषा से टकराएगा—यह भारत अपने भूगोल से समझौता नहीं करता। कश्मीर अब केवल नक्शे में नहीं, DNA में है।
और यह कोई मसला नहीं—यह रक्त-लिखित उत्तराधिकार है।
“भारत पाकिस्तान से अब कोई बात करेगा, तो वह होगी—पाक अधिकृत कश्मीर के विलय की बात।”
बाक़ी सब कल्पनाएँ हैं—और ट्रंप जैसी कल्पनाओं के लिए भारत अब समय नहीं देता।
जय हिंद।