मोरबी: कच्छ-भुज में तेरापंथ धर्मसंघ के महामहोत्सव मर्यादा महोत्सव के आयोजन के लिए गतिमान तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ वर्तमान में सौराष्ट्र क्षेत्र में गतिमान हैं। छत्तर गांव से प्रातःकाल में मंगल प्रस्थान किया। जन-जन को मंगल आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। विहार के दौरान आचार्यश्री ने राजकोट जिले की सीमा को पारकर मोरबी जिले में पधारे। आज के विहार मार्ग के निकट अनेकानेक पवनचक्कियां भी दिखाई दे रही थीं। विहार मार्ग के एक ओर मिताना डेम भी दिखाई दे रहा था जो डेमी नदी पर बना हुआ है। इस डेम के माध्यम से कितने ही क्षेत्रों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होता है। आचार्यश्री लगभग 12 किलोमीटर का विहार कर टंकारा गांव में स्थित आर्य विद्यालयम् में पधारे। यह टंकारा आर्य समाज के संथापक और ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती की जन्मभूमि भी है। महर्षि दयानंद सरस्वती के जन्मस्थान में तेरापंथ के वर्तमान अधिशास्ता का पदार्पण स्थानीय लोगों को प्रसन्नता की अनुभूति करा रहा था।
आर्य विद्यालयम् में महातपस्वी आचार्यश्री ने उपस्थित लोगों पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि आत्मा और मोक्ष की ओर अभिमुखता हो तो वह महत्त्वपूर्ण बात होती है। आदमी को इसका विवेक होना चाहिए कि किस ओर अपना मुख रखना चाहिए और किस ओर अपनी दृष्टि रखनी चाहिए। किस ओर मुंह करके बैठना, किधर माथा कर सोना और किधर माथा करके नहीं सोना चाहिए। अपने बड़ों की ओर मुंह करके बैठना तो अच्छी बात हो सकती है, किन्तु उनकी ओर पृष्ठ भाग करके बैठना विनय और व्यवहार में उचित नहीं भी माना जा सकता है। आगम में पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं का आदेश मिलता है। किसी को दीक्षित करना है तो दीक्षा देने वाले और दीक्षा लेने वाले का मुंह पूर्व अथवा उत्तर की ओर होना चाहिए। विशेष जप आदि भी करना है तो अच्छी दिशा की दृष्टि से पूर्व और उत्तर का महत्त्व होता है। हालांकि कुछ बातें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार भी कुछ बातें हो सकती हैं।
अध्यात्म के संदर्भ में बताया गया कि आदमी का दृष्टिकोण आत्मा की ओर होना चाहिए। दृष्टिकोण और आकर्षण आत्मा की ओर हो जाए तो अच्छी बात हो सकती है। जिसमें चैतन्य है, आत्मा है, वह जीव है। साधु का रुझान, आकर्षण आत्मा की ओर होना चाहिए। इसका प्रयास सामान्य आदमी को भी करने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यकतानुसार पदार्थों का उपयोग करना हो सकता है, वह सहायक हो सकता है, लेकिन मोक्ष मुख्य साध्य होना चाहिए।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। संवर और निर्जरा मोक्ष के साधन हैं। आदमी को इन साधनों का उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। रजोहरण, पूंजणी, मुखवस्त्रिका के बिना तो मुक्ति मिल सकती है, लेकिन संवर, निर्जरा, ज्ञान, दर्शन व चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। साधुओं का मूल साध्य मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, तप की आराधना करके मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। आत्मा की ओर अधिक ध्यान देने और उसमें सहयोगी बनने वाले साधनों को उचित, सुव्यवस्थित रूप में उपयोग करें, यह काम्य हैं। आचार्यश्री ने साधुचर्या आदि से जुड़े अनेक साधनों व उपकरणों का उचित, समुचित और सुव्यवस्थित रूप में उपयोग करने की भी प्रेरणा प्रदान की।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने अपने प्रवचन से संदर्भित प्रश्न बाल मुनि व साध्वियों से प्रश्न किए तो मुनिजी और साध्वीजी ने उत्तर प्रदान किए तो आचार्यश्री ने उन्हें भी पावन प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी का क्रम संपादित किया। उपस्थित साधु-साध्वियों ने अपने-अपने स्थान खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया।
आर्य विद्यालयम् के संचालक श्री रमणीकभाई ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।