कच्छ:जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी आध्यात्मिकता का आलोक बांटते हुए गुजरात के कच्छ जिले में गतिमान हैं। आचार्यश्री तेरापंथ धर्मसंघ का महामहोत्सव ‘मर्यादा महोत्सव’ भी कच्छ जिले के भुज शहर में आयोजित करेंगे। इसके लिए आचार्यश्री 31 जनवरी को भुज में मंगल प्रवेश करेंगे। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास का पहला मर्यादा महोत्सव भुज को प्राप्त हुआ है। ऐसे ऐतिहासिक क्षण को प्राप्त कर भुज ही नहीं, सम्पूर्ण गुजरात भी उत्साहित है। रविवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने कुकमा से मंगल विहार किया। प्रातःकाल वातावरण में व्याप्त शीतलता सूर्य के आसामन में गतिमान होते ही मानों समाप्त हो जा रही है। लगभग छह किलोमीटर का विहार कर भगवान वर्धमान के प्रतिनिधि ने वर्धमाननगर में मंगल प्रवेश किया, जहां उपस्थित श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री का भावपूर्ण स्वागत किया। आचार्यश्री वर्धमाननगर में स्थित बी.एम.सी.बी. पब्लिक स्कूल में पधारे।
भगवान वर्धमान के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उपस्थित श्रद्धालुओं को अपनी अमृतमयी वाणी से पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि जैन दर्शन दुनिया के और भारत के अनेक दर्शनों में एक दर्शन है। इसमें अनेक सिद्धांत हैं। आत्मा का, कर्मों का, लोक आदि का सिद्धांत है। आत्मा के बारे में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। आत्मा के सिद्धांत में यह भी बताया गया है कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है। जब तक आत्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता, आत्मा जन्म-मरण के चक्र में उलझी हुई रहती है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मरण करती रहती है। जैसे कोई मनुष्य ही अपना आयुष्य पूर्ण कर कोई देव गति में, कोई नरक में, कोई तिर्यंच में तो कोई वापस मनुष्य भी सकता है तो कभी कोई मोक्ष को भी प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार पुनर्जन्म है तो पूर्वजन्म की बात जुड़ी हुई है कि पुनर्जन्म है तो पूर्वजन्म भी होगा ही होगा। प्रश्न हो सकता है कि पुनर्जन्म क्यों होता है? शास्त्रों में बताया गया कि क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों के कारण पुनर्जन्म होता है। ये कषाय ही पुनर्जन्म के हेतु होते हैं। जब तक कषाय रहता है, आदमी पुनर्जन्म लेता ही रहता है। जन्म-मरण की इस प्रक्रिया में जीव को कितना दुःख उठाना पड़ता है। जन्म-मृत्यु, रोग, शोक-दुःख आदि-आदि दुःख हैं। यह दुःख तब तक झेलना होता है, जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाती। साधु बनने का मूल प्रयोजन जन्म-मरण की परंपरा से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति करने का प्रयास करना चाहिए।
बत्तीस आगम हमारे यहां मान्य हैं। आगम साहित्य से हमें कितनी ज्ञान की बातें प्राप्त होती हैं। हम सभी महावीर के परंपरा के साधु हैं। धर्म के तीन प्रकार बताए गए हैं-अहिंसा, संयम और तप। आदमी के जीवन में धर्म होता है, धर्म की साधना होती है तो आदमी को जन्म-मरण की परंपरा से छुटकारा मिल सकता है। साधु बनने का मूल लक्ष्य जन्म-मरण की परंपरा से छुटकारा पाना होता है। श्रावक बनने के पीछे का कारण भी मोक्ष की प्राप्ति, जन्म-मरण से छुटकारा पाना है। सिद्ध बनने से पहले आदमी को शुद्ध बनने का प्रयास करना चाहिए। कषायों से मुक्त हो जाने पर जीव को अवश्य मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इसलिए आदमी को अपने जीवन में यथासंभव कषाय से मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए। कषायों से मुक्त होते ही मानों मोक्ष तैयार होता है। इसलिए आदमी को अपने जीवन में कषायों से मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने लोगों को कुछ क्षण प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी कराया। आचार्यश्री ने आगे कहा कि आज वर्धमान नगर में आना हुआ है। यहां की जनता में कषाय मंदता बनी रहे। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने समुपस्थित जनता को उद्बोधित किया।
वर्धमान नगर की ओर से श्री कांतिलाल भाई शाह, छह कोटि स्थानकवासी समाज के अध्यक्ष श्री अशोक भाई शाह, विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमती गीताबेन सोनी ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी तथा आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।