सुरेन्द्रनगर:जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के देदीप्यमान महासूर्य, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी शनिवार को लीमड़ी में जब स्थानकवासी अजरामर लीमड़ी संप्रदाय के 27वें गादी आचार्यश्री भावचन्द्रजी से मिलन के लिए श्री अजरामर गुरु गादी तीर्थधाम में पधारे तो मानों सद्भावना की ऐसी बयार बही कि उसके सुमधुर सुगंध ने जन-जन को आह्लादित कर दिया। आचार्यश्री के स्वयं वहां पधारने से आचार्यश्री भावचन्द्रजी भावविभोर नजर आ रहे थे। मधुर मिलन के बाद वार्तालाप का आदि क्रम चला। वार्तालाप के दौरान साहित्य, विहारचर्या, जैन शासन, इतिहास आदि विषयों पर चर्चा हुई। इस दौरान मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी व विवेकमुनिजी महाराज सा तथा वरिष्ठ श्रावक श्री भरत भाई आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस मंगल सुअवसर पर आचार्यश्री भावचन्द्रजी ने आचार्यश्री को ‘पुण्य सम्राट’ का अलंकरण प्रदान किया तो उपस्थित जनता जयघोष कर उठी। दो आचार्यों के आध्यात्मिक मिलन व परस्पर आध्यात्मिक स्नेह का भाव जन-जन के मन को नई प्रेरणा प्रदान कर रहा था। रविवार को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने लीमड़ी से मंगल प्रस्थान किया और लगभग बारह किलोमीटर का विहार सुसम्पन्न कर बलडाना में स्थित सरकारी माध्यमिक शाला में पधारे। वहां उपस्थित लोगों ने आचार्यश्री का भावपूर्ण स्वागत किया।
शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता व को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के भीतर अनेक वृत्तियां होती हैं। उन वृत्तियों से प्रवृत्तियां भी होती हैं। मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्तियां होती हैं तो उनकी पृष्ठभूमि में कोई राग, द्वेष, मान, माया, लोभ आदि की वृत्ति अवश्य होती है। वृत्ति और प्रवृत्ति के बाद निवृत्ति की बात भी होती है। अशुभ से निवृत्ति का प्रयास करना चाहिए। मन, वचन काय के योग उजले कैसे रहें और मलीन कैसे होता है? उसके लिए बताया गया कि योग के साथ मोहनीय कर्म जुड़ता है तो योग अशुभ बन जाते हैं और मोहनीय कर्म वियुक्त रहता है तो योग शुभता में जा सकते हैं। मोहनीय कर्म का उदय तो निरंतर चालू है। आदमी स्वाध्याय करे, ध्यान में बैठ जाने पर भी मोहनीय कर्म का उदय चालू ही रहता है। मोहनीय कर्म के उदय को सुप्त और जागृत के रूप में भी रखा जा सकता है। मोहनीय कर्म यदि जागृत अवस्था में योग के साथ जुड़ जाता है तो वह उसे मलीन बना देता है। कषाय जब योग के साथ मिलते हैं तो मलीनता की बात आती है।
जिस प्रकार शरीर में दो नलियां होती हैं-अन्न नली और श्वास नली। जब तक अन्न अन्न नली में जाता है तो कोई दिक्कत की बात नहीं और यदि अन्न श्वास नली में चला गया तो तकलीफ देह हो जाता है। उसी प्रकार कषाय योग वाली नली में आ जाए तो योग नली को मलीन बना देने वाला होता है।
यदि आदमी के मन, वचन और काया में क्रोध, अहंकार, लोभ, मान, माया आदि आ जाता है तो योग मलीन हो जाता है। साधुत्व और संन्यास दुनिया की बड़ी चीज होती है। चारित्ररत्न की प्राप्ति से बड़ी चीज दुनिया में भला क्या हो सकती है। विद्यार्थी के जीवन में शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति कर अच्छा कमाई वाला बन जाए तो वह भी अच्छी बात है, किन्तु विद्यार्थियों को जीवन में त्याग, संयम, सादगी कैसे आए, माता-पिता और गुरुजनों के साथ कैसे अच्छे व्यवहार रखने की बातें आ जाएं। संयम, नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई आदि भी आए तो उनके ज्ञानात्मक विकास के साथ चारित्र का सुन्दर निर्माण हो सकता है। ज्ञान और आचार दोनों जीवन में होने चाहिए। कोरा ज्ञान हो और आचार न हो तो कमी की बात हो सकती है। इसलिए ज्ञान और आचार का समन्वय होना चाहिए। इसी प्रकार साधुत्व में श्रुत और शील दोनों का होना बहुत आवश्यक है। जीवन में कषाय पतला रहे तो सम्यक्त्व भी निर्मल रह सकता है।
आचार्यश्री ने चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी के क्रम को संपादित करते हुए चारित्रात्माओं को भी विविध प्रेरणाएं प्रदान कीं। तदुपरान्त सभी साधु-साध्वियों ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। सरकारी माध्यमिक शाला के प्रिंसिपल श्री विपीनभाई ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के पदाधिकारियों ने आचार्यश्री के समक्ष वर्ष 2025 के कैलेण्डर को लोकार्पित किया। तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम द्वारा भी वर्ष 2025 का कैलेण्डर लोकार्पित किया गया।