वाव-थराद:माडका में दो दिनों तक धर्म व अध्यात्म की गंगा प्रवाहित कर, जन-जन के मानस को आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान करने के उपरान्त सोमवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने माडका से प्रस्थान किया। श्रद्धा भावों से अभिभूत माडकावासियों ने अपने आराध्य के श्रीचरणों में अपने कृतज्ञ भाव समर्पित किए। आचार्यश्री अपने दोनों करकमलों से आशीष की वर्षा करते हुए अगले गंतव्य की ओर गतिमान हुए। आज आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ वाव में नौदिवसीय प्रवास के लिए पधार रहे थे। इस खुशी में वाववासी उत्साही श्रद्धालु माडका में भी पहुंच गए थे और वहीं से अपने आराध्य के श्रीचरणों का अनुगमन करने लगे। बढ़ती गर्मी आमजन को बेहाल कर रही थी, लेकिन समता के साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी समभाव से गतिमान थे। महासंत की आध्यात्मिक ऊर्जा के बल से श्रद्धालु भी अपने आराध्य का चरणों का अनुगमन कर रहे थे। जैसे-जैसे वाव नगर निकट होता जा रहा था, श्रद्धालुओं की उपस्थिति और उत्साह दोनों ही बढ़ता जा रहा था। लगभग दस किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री जैसे ही वाव नगर की सीमा मंे पधारे तो वाववासियों ने अपने आराध्य का भावभीना अभिनंदन किया। आचार्यश्री के शुभागमन के साथ ही वाव में बने ‘महाश्रमण द्वार’ का भी लोकार्पण हुआ। इस प्रवेश द्वार से ही आचार्यश्री ने वाव में मंगल प्रवेश किया। अनेक स्थानों पर कई झाकियां आदि भी बनाई गई थीं। जिनका आचार्यश्री ने अवलोकन किया। भव्य स्वागत जुलूस के साथ आचार्यश्री वाव में स्थित तेरापंथ भवन में पधारे। आचार्यश्री का नौदिवसीय वाव प्रवास यहीं निर्धारित है।
‘वर्धमान समवसरण’ उपस्थित श्रद्धालु जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी दुःखमुक्त रहना चाहता है और उसे सुखी जीवन अभिष्ट होता है। प्रश्न हो सकता है कि आदमी दुःखों से मुक्त कैसे रह सकता है? शास्त्र में कहा भी गया है कि जन्म दुःख है, मृत्यु दुःख है, बीमारी दुःख है, बुढ़ापा भी दुःख है। इस प्रकार संसार में कितना दुःख है। ऐसे में आदमी सुख पाने का प्रयास भी करता है। सुख की अभिलाषा में भौतिक सुखों की ओर आकृष्ट होता है, जिसका परिणाम भविष्य में दुःख का कारण बनता है। एक सुख पदार्थों से प्राप्त होता है, वह भौतिक और अल्प समय का होता है। शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श से प्राप्त होने वाला जो सुख होता है, वह अस्थायी सुख होता है। इसके परिणाम में दुःख भी आ सकता है। जैसे आदमी एक बार अच्छी खाद्य वस्तुओं को बहुत खा ले तो एकबार तो उसे सुख की अनुभूति हो सकती है, किन्तु उसकी अधिकता हो जाए तो आदमी को अनेक प्रकार के दुःख झेलने पड़ सकते हैं।
शास्त्र में बताया गया कि दुःख से मुक्त होना है तो आदमी को अपने आप का निग्रह/संयम करने का प्रयास करे। आदमी अपना संयम करने लग जाए तो आदमी का जीवन सुखमय बन सकता है। यह बहुत अच्छी बात हो सकती है। जो आदमी स्वयं अपने आपको आत्मानुशासन में रहता है, वह सुखी बन सकता है। अपने मन, वचन व काया का निग्रह करने वाला आदमी कितना सुखी हो सकता है। जो नर संतोषी होता है, वह सदा सुखी होता है। संतोष को परम सुख भी कहा गया है। संतोष रूपी धन जीवन में आ जाए सभी प्रकार के धन धूल के समान हो सकते हैं। आदमी को अपने आपका निग्रह करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के भीतर जितना संयम, संतोष का प्रभाव बढ़ता है, आदमी का जीवन सुखमय बन सकता है।
आचार्यश्री ने नेपाली नववर्ष के संदर्भ में मंगलपाठ का उच्चारण करते हुए उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। आचार्यश्री ने आगे कहा कि आज वाव आना हुआ है। यह वही वाव जहां आचार्यश्री तुलसी पधारे थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी भी अपने आचार्यकाल में एकबार पधारे थे। मैं एक बार गुरुदेव महाप्रज्ञजी की सेवा में आया था, दूसरी बार वर्ष 2013 में आए थे और अब अभी आना हुआ है। आज उस भूमि पर पुनः आना हुआ है। यहां की जनता गुडमैन बने, और सभी को परम सुख की प्राप्ति हो।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने भी वाववासियों को संबोधित किया। वाव-पथक के संयोजक श्री विनीतभाई संघवी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। वाव मूर्तिपूजक समाज संघ के प्रमुख श्री भीखाभाई दोसी, श्री दीपाभाई दोसी, थराद त्रिस्तुति जैन संघ के ट्रस्टी श्री जयंतीभाई वकील तथा वाव गांव की ओर से राणा श्री गजेन्द्रसिंह ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी। स्थानीय तेरापंथ महिला मण्डल ने स्वागत गीत का संगान किया।