रूस की दो दिवसीय यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (बुधवार को) ऑस्ट्रिया पहुंचे, जहां उन्होंने ऑस्ट्रिया के चांसलर कार्ल नेहमर से मुलाकात की और द्विपक्षीय वार्ता की। बैठक से पहले मोदी ने कहा कि भारत-ऑस्ट्रिया दोस्ती मजबूत है और आने वाले समय में यह और मजबूत होगी। पिछले 40 से अधिक वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली यात्रा है। पीएम मोदी से पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑस्ट्रिया का दौरा किया था।
ऑस्ट्रिया मध्य यूरोप के दक्षिणी भाग में स्थित एक देश है। यह नौ राज्यों की एक संघ है, जिसकी राजधानी विएना है। भारत और ऑस्ट्रिया के बीच बहुत ही मधुर संबंध रहे हैं। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आधुनिक ऑस्ट्रियाई राज्य की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तब से ही दोनों देश गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का समर्थन करते रहे हैं। भारत की ही तरह ऑस्ट्रिया भा किसी गुट में शामिल नहीं है। यह यूरोप में है लेकिन नाटो का हिस्सा नहीं है।
दरअसल, द्वितीय विश्व युद्ध से पहले ऑस्ट्रिया जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर की विस्तारवादी मंसूबों का शिकार हो चुका था, उस पर एक तरह से नाजी शासन था और जब द्वितीय विश्व युद्ध में नाजी सेना की हार हुई तो चार सहयोगी देशों (अमेरिका, सोवियत संघ, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस) ने ऑस्ट्रिया पर कब्जा कर लिया। तब ऑस्ट्रिया अपनी आजादी के लिए छटपटा रहा था। उधर रूस को इस बात का डर सता रहा था कि अगर ऑस्ट्रिया स्वतंत्र हुआ और वहां से सहयोगी देशों की सेना की वापसी हुई तो नाजियों का फिर से उदय हो सकता है, जो सोवियत रूस के लिए एक बड़ा खतरा होगा। रूस को इस बात की भी आशंका थी कि अगर ऑस्ट्रिया को आजाद कर दिया गया तो वह बाद में सैन्य गुटबंदी कर सकता है। इससे यूरोप में शांति का संकट उठ खड़ा होगा।
दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया के नेतागण तमाम वैश्विक मंचों पर अपनी आजादी और संप्रभुता के लिए गुहार लगा रहे थे। उधर 1950 के शुरुआती दशक में ही भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहचान दुनिया में एक कुशल प्रशासक के रूप में हो रही थी। भारत ने तब तक सोवियत संघ से अपने रिश्ते प्रगाढ़ कर लिए थे। पंडित नेहरू की इस अहमियत को देखते हुए 20 जून 1953 को ऑस्ट्रिया के कार्ल ग्रुबर (जो बाद में विदेश मंत्री बने) ने पंडित नेहरू से स्विटजरलैंड में मुलाकात की थी।
नेहरू उस वक्त स्विटजरलैंड के ल्यूसर्न झील के बगल में स्थित 1182 मीटर ऊंची बर्गेनस्टॉक पर्वत पर ठहरे हुए थे। वहीं दोनों नेताओं के बीच ऑस्ट्रिया की आजादी पर लंबी चर्चा हुई थी। ब्रिटिश इतिहासकार सर जॉन व्हीलर-बेनेट के मुताबिक, इस दौरान ग्रुबर ने पंडित नेहरू से अनुरोध किया कि वे अपने सोवियत संघ से अपने अच्छे रिश्तों का उपयोग कर ऑस्ट्रिया संकट का समाधान करें। इस दौरान ग्रुबर ने नेहरू से कहा कि उनका देश ऑस्ट्रिया इस बात की गारंटी देने को तैयार है कि किसी भी तरह के सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं होगा। ग्रुबर ने पंडित नेहरू से यह भी कहा कि यह बात उसके संविधान में लिखित होगी।
इसके बाद नेहरू ऑस्ट्रिया की बात सोवियत संघ तक पहुंचाने और उसके संकट के समाधान के लिए मध्यस्थ बनने को तैयार हो गए। नेहरू भी गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रवर्तक थे। इसलिए उन्होंने ऑस्ट्रिया की मदद करने को ठानी और सोवियत संघ से बात करने को तैयार हो गए। नेहरू सोवियत संघ को यह समझाने में कामयाब रहे कि ऑस्ट्रिया ना तो किसी सैन्य गठबंधन में शामिल होगा और ना ही भविष्य में रूस के लिए खतरा होगा। इसके बाद मॉस्को में 15 मई, 1955 को दोनों देशों के बीच ऑस्ट्रियाई राज्य संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके बाद ऑस्ट्रिया एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और सहयोगी सेनाएं वहां से वापस चली गईं।
ऑस्ट्रियाई विदेश मंत्री ग्रुबर ने 1976 में लिखे अपने संस्मरण में ऑस्ट्रिया की आजादी में पंडित नेहरू की भूमिका को स्वीकार किया था और लिखा था कि ऑस्ट्रिया की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने में नेहरू की भूमिका को ऑस्ट्रियाई मीडिया ने खूब सराहा था। एक समाचार पत्र नेउज़ ऑस्टररिच (द न्यू ऑस्ट्रिया) ने नेहरू को पूर्व और पश्चिम के बीच सहयोग की मजबूत कड़ी बताया था और सबसे प्रतिष्ठित नेता कहा था। अखबार ने लिखा था कि नेहरू की वकालत की वजह से ही हमारे उपेक्षित अधिकार हमें मिल सके।