अभय कुमार दुबे
पुरानी कहावत है कि चुनाव के जरिए जनता लोकतंत्र में सत्ता की रोटी को उलटती-पलटती है। इसके साथ जोड़कर यह भी कहा जा सकता है कि लोकतंत्र की बेहतरी तब होती है, जब बहुमत और अल्पमत स्थायी न होकर अस्थायी हों। जो आज बहुमत है, कल अल्पमत में बदल जाए और जो आज अल्पमत है, वह कल बहुमत प्राप्त कर सत्ताधारी नज़र आने लगे। अगर ऐसा नहीं होगा तो मैजोरिटी (बहुमत) मैजोरिटेरियनिज्म (बहुसंख्यकवाद) में परिवर्तित हो जाएगी।
लोकतंत्र नाम के लिए बना रहेगा, लेकिन संख्याबल के दम पर एक पार्टी या एक समुदाय की सरकार बनती रहेगी। ऐसा होना तब और चिंताजनक लगता है, जब एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद कोई पार्टी सत्ता में वापसी करती है। अगर कोई पार्टी लगातार चुनाव जीतती है तो इसे उसका दोष न मानकर उसकी खूबी समझा जाना चाहिए। पर राजनीतिक समीक्षकों का यह कर्तव्य ज़रूर है कि वे जीत में निहित विरोधाभासों को जयजयकार और तालियों की गड़गड़ाहट में छिपने न दें, बल्कि सामने लाकर उनकी प्रकृति को स्पष्ट करें।
मसलन, सीएसडीएस का चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण बताता है कि यूपी में तकरीबन 39% लोग सरकार बदलने के हामी थे और उससे केवल 5% ज्यादा ही सरकार की वापसी चाहते थे। कुल मिलाकर सरकार के प्रति नेट सेटिस्फेक्शन का आंकड़ा केवल +7 था। ज़ाहिर तौर पर एंटी-इनकम्बेंसी और प्रो-इनकम्बेंसी में बड़ा अंतर नहीं था। उत्तराखंड में भी नेट सेटिस्फेक्शन +8 था। गोवा में तो यह निगेटिव यानी -2 तक चला गया। इसके बावजूद दोनों जगहों पर सत्तारूढ़ दल की वापसी हुई।
यानी सरकार बदलने की ज़मीन तैयार थी, पर सरकार विरोधी राजनीतिक शक्तियां इस अच्छी-खासी एंटी-इनकम्बेंसी को अपनी कोशिशों से बढ़ाने में नाकाम रहीं। सत्तारूढ़ दल के पास पहले से ही चुनाव लड़ने का बेहतर बंदोबस्त था, इसलिए उसने विपक्षी राजनीति की इस अक्षमता का जमकर लाभ उठाया। यूपी में सत्तारूढ़ दल को ज्यादा वोटों में 57 सीटें कम मिलने, 11 मंत्रियों और एक उपमुख्यमंत्री के हार जाने, तीन जिलों में सरकारी पार्टी का कोई उम्मीदवार न जीत पाने और बहुत-सी सीटों में जीत का अंतर काफी कम रहने को इसके प्रमाण के तौर पर देखा जा सकता है।
वहीं पंजाब में वोटरों ने नई पार्टी को 92 सीटें देकर असाधारण अभिव्यक्ति की। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पंजाब में राज्य सरकार के प्रति नेट सेटिस्फेक्शन बहुत नकारात्मक यानी -52 था। यूपी, उत्तराखंड और गोवा में नेट सेटिस्फेक्शन की दर कम ज़रूर थी, लेकिन केंद्र सरकार के प्रति इन राज्यों की जनता में संतुष्टि का भाव अधिक दिखाई पड़ा। परिणाम यह निकला कि राज्य सरकारों की खामियों की भरपाई केंद्र सरकार करती नज़र आई। इसके उलट पंजाब में न केवल राज्य सरकार के प्रति असंतोष बहुत था, बल्कि केंद्र सरकार से भी वहां के मतदाता बहुत नाराज़ (-44) थे।
यूपी में सपा अक्टूबर से पहले राजनीतिक रूप से तकरीबन न के बराबर सक्रिय थी। बसपा तो रहस्यमय ढंग से आखिर तक सक्रिय नहीं रही। यूपी में सपा और उत्तराखंड और गोवा में कांग्रेस को सत्ता में लाने के बजाय वोटरों ने सोचा कि क्यों न इनसे कुछ कम खराब पार्टी को ही दोबारा मौका दे दिया जाए। साथ ही एक नतीजा यह भी निकलता है कि भाजपा की चुनावी राजनीति में राज्यों का पक्ष कमज़ोर है।
राज्यों में पार्टी को टिके रहने के लिए केंद्र की काफी मदद की जरूरत पड़ती है। वहां की पार्टी अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकती। विपक्ष के कमज़ोर होते चले जाने और नरेंद्र मोदी के वर्चस्व के घनीभूत होने में सीधा रिश्ता है। पीएम किस्मत वाले हैं कि जिस ज़माने में वे राजनीति कर रहे हैं, वह विचारहीन, रणनीतिविहीन, कमज़ोर और विभाजित विपक्ष के ज़माने की तरह जाना जाएगा।
विपक्ष की नाकामी
सरकार बदलने की ज़मीन तैयार थी, पर विपक्ष इस अच्छी-खासी एंटी-इनकम्बेंसी को अपनी कोशिशों से बढ़ाने में नाकाम रहा। सत्तारूढ़ दल के पास पहले से ही चुनाव लड़ने का बेहतर बंदोबस्त था, इसलिए उसने इस अक्षमता का लाभ उठाया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)