भारत 1929, 19 साल का कारपेंटर इल्म-उद-दीन दुकान के अंदर आता है। महाशय राजपाल जी से बातें करता है, उन्हें बातों में उलझाता है और फिर उनकी छाती पे 8 बार चाकू से वार करता है जिससे महाशय राजपाल जी की मौत हो जाती है।
भारत 2022, दो मध्यम उम्र के आदमी टेलर श्री कन्हैया लाल की दुकान में आते हैं। उनको काम में उलझाते हैं और फिर धारदार छुरी से हमला करते हैं. कन्हैया जी की मौत हो जाती है।
दोनों की गलती??
महाशय जी को इसलिए मारा क्योंकि उन्होंने ‘रंगीला रसूल’ प्रकाशित की थी और राइटर का नाम नहीं बताया, कन्हैया जी को इसलिए मारा क्योंकि उन्होंने नूपुर शर्मा पर पोस्ट की थी।
कितनी अजीब बात है…
क़ुरान चैप्टर 6, वर्स नंबर 108 में साफ़-साफ़ कहा गया है कि किसी और दूसरे धर्म के बारे में गलत मत बोलें जिससे वह तुम्हारे धर्म के बारे में गलत ना बोलें।
लेकिन ये दोनों मर्डर यह साबित करते हैं कि इस्लाम मानने वाले या तो ये जानते नहीं हैं या एक ऐसी हैवानियत के चंगुल में फंस चुके हैं जिससे वो बाहर नहीं निकल सकते।
आइये दोनों इन्सिडेंट्स को इस आयत की दृष्टि से देखते हैं।
इसकी शुरुआत वर्ष 1923 में गुलाम भारत में हुई थी। उस दौरान कट्टरपंथी मुस्लिमों ने भगवान श्री कृष्ण समेत दूसरे देवी देवताओं को लेकर अपमानजनक और अश्लील भाषा का इस्तेमाल करते हुए ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और ‘यूनिसेवी सादी का महर्षि’ नाम की दो अत्यधिक विवादित पुस्तकें प्रकाशित की। पहले में भगवान श्री कृष्ण तो दूसरे में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती को लेकर बहुत ही अपमानजनक टिप्पणी की गई थी। खास बात ये है कि इस पुस्तक को एक अहमदी मुस्लिम ने लिखा था। उस समय तक धारा 295(A) अस्तित्व में नहीं था।
मुस्लिमों की इस हरकत के जवाब में महाशय राजपाल के करीबी दोस्त पंडित चामुपति लाल ने इस्लामिक पैगंबर मोहम्मद की एक छोटी सी जीवनी लिखी। ‘रंगीला रसूल’ के शीर्षक वाला यह छोटा पैम्फलेट पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर एक व्यंग्यपूर्ण कहानी थी। इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए पंडित चामुपति ने महाशय राजपाल से वादा लिया कि वह कभी भी इसके लेखक के नाम को उजागर नहीं करेंगे।
यह पैम्फलेट ऐतिहासिक रूप से हदीसों के इतिहास पर आधारित था और पूरी तरह से सटीक था। लेकिन इससे लाहौर के मुस्लिम पूरी तरह से आक्रोशित हो उठे। यह ऐसा मामला था कि लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया और इसका पहला संस्करण बहुत ही जल्द बिक गया। इसके प्रकाशित होने के करीब एक महीने के बाद जून 1924 में महात्मा गाँधी ने अपने साप्ताहिक ‘यंग इंडिया’ जर्नल में इसकी कड़ी निंदा करते हुए कहा था कि यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है।
इस मामले में लाहौर उच्च न्यायालय ने एक फैसले में कहा था कि यह लेख मुस्लिम समुदाय को ‘आक्रोशित’ करने वाला था। कानूनी तौर पर इसका अभियोजन इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि धारा 153 (A) के तहत लेखन विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच दुश्मनी या नफरत का कारण नहीं बन सकता। कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिमों के आक्रोश ने तत्कालीन शाषकों को कानून बदलने और धारा 295 (A) लागू करने के लिए मजबूर कर दिया था।
घटना के बाद 6 सितंबर, 1929 को इल्म उद दीन नाम के एक 19 वर्षीय मुस्लिम बढ़ई ने अपनी दुकान के बाहरी बरामदे में बैठे हुए महाशय राजपाल की छाती पर आठ बार हमला किया। चोट लगने से महाशय राजपाल की मौत हो गई।
सबसे खास बात यह थी कि इल्म उद दीन खुद अनपढ़ था और उसने अपने जीवन में रंगीला रसूल या कोई दूसरी किताब नहीं पढ़ी थी। बावजूद इसके मुस्लिम संगठनों और मौलानाओं ने उसके अंदर इतनी नफरत भर दिया था कि उसने महाशय राजपाल की हत्या कर दी। उसे लगा कि राजपाल ने ‘ईशनिंदा’ की है।
जब इल्म उद दीन को हत्या का दोषी ठहराया गया था तो उर्दू कवि इकबाल और जिन्ना ने हत्या जैसे जघन्य अपराध को एक शानदार धार्मिक कार्य बताते हुए उसकी सराहना की थी।
[**the detailed article can be find Here ]
अब ऊपर वाले वाक़ये को आज के एपिसोड से जोड़ कर देखिये….नाम बदल गए हैं लेकिन हरकतें वही हैं।
दोनों समय– हिन्दुओं के धर्म पे भद्दा कमेंट किया गया और फिर जब हिन्दुओं ने रिएक्ट किया तब गुस्ताख़-ऐ-रसूल की एक ही सज़ा, सर तन से जुदा!!
लेकिन इन दरिंदों को ये समझ ही नहीं आ रहा है कि रसूल की कोई गुस्ताख़ी हुई ही नहीं है…. क़ुरान चैप्टर 33, वर्स 70 साफ़ बोलता है कि सच बोलो और एक दम सीधा, घुमा फिरा के नहीं…..
दोनों समय महाशय जी के राइटर ने और नूपुर जी ने सच ही बोला, दोनों के धर्म को पहले गलत बोला गया तो उन पर अटैक करके, क़ुरान के विरुद्ध जाकर, अल्लाह और रसूल खुश हुए या शर्मिंदा??