आखिरकार हनुमान ने सुरसा की बात मान ली और उसका भोजन बनना स्वीकार कर लिया। सुरसा ने ज्यों ही मुंह खोला, पवन पुत्र ने अपना आकार विशाल कर लिया। यह देख सुरसा ने भी अपना आकार बड़ा कर लिया। जब हनुमान ने देखा कि सुरसा ने अपनी सीमा लांघ कर मुंह का आकार और भी बड़ा कर लिया है तो वे तत्काल अपने विशाल रूप को समेटते हुए उसके मुंह के अंदर गए और बाहर वापस आ गए। हनुमान के बुद्धि कौशल से प्रसन्न होकर सुरसा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘पुत्र तुम अपने कार्य में सफल हो।’ हनुमान ने अपने शरीर को पहले विशालकाय और फिर एक छोटे रूप में ‘महिमा’ तथा ‘लघिमा’ सिद्धि के बल पर किया था। हनुमान रुद्र के ग्यारहवें अवतार माने जाते हैं। संकटमोचक हनुमान ‘अष्ट सिद्धि’ और ‘नव निधि’ के दाता भी हैं।
हनुमान ‘अणिमा’, ‘लघिमा’, ‘गरिमा’, ‘प्राप्ति’, ‘प्राकाम्य’, ‘महिमा’, ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’ इन सभी आठ प्रकार की सिद्धियों के स्वामी हैं। राम जब लक्ष्मण के साथ सीताजी को वन-वन खोज रहे थे तो ब्राह्मण वेश में हनुमानजी अपनी सरलता, वाणी और ज्ञान से रामजी को प्रभावित कर लेते हैं। यह वशीकरण ‘वशित्व’ सिद्धि है। माता सीता को खोजने के क्रम में जब पवन पुत्र सागर को पार करने के लिए विराट् रूप धारण करते हैं तो उनका यह कार्य ‘महिमा’ सिद्धि का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जब हनुमान सागर पार कर लंका में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़े तो अति सूक्ष्म रूप धर कर ‘अणिमा’ सिद्धि को साकार किया। माता सीता को खोजते-खोजते जब बजरंग बली अशोक वाटिका में पहुंचे तो उनके लघु रूप बनने में ‘लघिमा’ सिद्धि काम आई। इसी प्रकार पवन सुत की ‘गरिमा’ सिद्धि के दर्शन करने के लिए महाभारत काल में जाना होगा, जब हनुमान महाबली भीम के बल के अहंकार को तोड़ने के लिए बूढ़े वानर का रूप धारण उनके मार्ग में लेट गए थे और भीम उनकी पूंछ को हिला भी नहीं पाए। इसी प्रकार बाल हनुमान के मन में उगते हुए सूर्य को पाने की अभिलाषा जागी तो उन्होंने उसे पकड़ कर मुंह में रख लिया तो ‘अभिलाषा’ सिद्धि के दर्शन हुए। ‘प्राकाम्य’ सिद्धि को समझने के लिए पवन पुत्र की राम के प्रति भक्ति को समझना होगा। रामभक्त हनुमान ने राम की भक्ति के अलावा और कुछ नहीं चाहा और वह उन्हें मिल गई, इसलिए कहा जाता है कि हनुमान की कृपा पाए बिना राम की कृपा नहीं मिलती। पवन पुत्र की राम के प्रति अनन्य भक्ति का ही परिणाम था कि उन्हें प्रभुत्व और अधिकार की प्राप्ति स्वत ही हो गई, इसे ही ‘ईशित्व’ सिद्धि कहते हैं।
इसी प्रकार नव रत्नों को ही नौ निधि कहा जाता है। ये हैं— पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व। सांसारिक जगत के लिए ये निधियां भले ही बहुत महत्व रखती हों, लेकिन भक्त हनुमान के लिए तो केवल राम नाम की मणि ही सबसे ज्यादा मूल्यवान है। इसे इस प्रसंग से समझा जा सकता है।
रावण वध के पश्चात एक दिन श्रीराम सीताजी के साथ दरबार में बैठे थे। उन्होंने सभी को कुछ-न-कुछ उपहार दिए। श्रीराम ने हनुमान को भी उपहारस्वरूप मूल्यवान मोतियों की माला भेंट की। पवन पुत्र उस माला से मोती निकाल-निकालकर दांतों से तोड़-तोड़कर देखने लगे। हनुमान के इस कार्य को देखकर भगवान राम ने हनुमान से पूछा, ‘हे पवन पुत्र! आप इन मोतियों में क्या ढूंढ़ रहे हैं?’ पवन पुत्र ने कहा, ‘प्रभु मैं आपको और माता को इन मोतियों में ढूंढ़ रहा हूं। लेकिन इसमें आप कहीं नहीं दिखाई दे रहे हैं और जिस वस्तु में आप नहीं, वह मेरे लिए व्यर्थ है।’ यह देख एक दरबारी ने उसने कहा, ‘पवन पुत्र क्या आपको लगता है कि आपके शरीर में भी भगवान हैं? अगर ऐसा है तो हमें दिखाइए। नहीं तो आपका यह शरीर भी व्यर्थ है।’ यह सुनकर हनुमान ने भरी सभा में अपना सीना चीरकर दिखा दिया। पूरी सभा यह देखकर हैरान थी कि भगवान राम माता जानकी के साथ हनुमान के हृदय में विराजमान हैं।