भारतीय पुराणों में भस्मासुर की कथा प्रसिद्ध है—एक ऐसा राक्षस जिसे वरदान मिला था कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्म हो जाएगा। किंतु यह शक्ति अंततः उसी के विनाश का कारण बनी। आज इस कथा की प्रासंगिकता वॉशिंगटन डीसी के गलियारों में देखी जा सकती है, जहाँ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियाँ किसी भस्मासुर सरीखी प्रतीत हो रही हैं—विशेषकर अमेरिका की अपनी ही कंपनियों के लिए।
बीते दिनों ट्रंप ने Apple के CEO टिम कुक को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने भारत में iPhone का निर्माण जारी रखा, तो उनके उत्पादों पर भारी-भरकम शुल्क लगाया जाएगा। यह धमकी केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक हताशा की गूंज भी लगती है। ट्रंप इन दिनों नीति से नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया से राजनीति कर रहे हैं—और इस बार उनकी नाराजगी का केंद्र भारत है।
भारत में Apple का व्यवसाय बीते वर्षों में तेजी से बढ़ा है। 2024 में कंपनी ने भारत में 2 अरब डॉलर के iPhone बनाए, जो पिछले वर्ष की तुलना में 60% अधिक है। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में बने ये उपकरण ‘मेक इन इंडिया’ पहल का उदाहरण बन चुके हैं। इससे न केवल भारत में रोज़गार सृजन हुआ है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भारत की भूमिका भी सशक्त हुई है।
ट्रंप को आपत्ति इस बात से नहीं है कि Apple भारत में उत्पादन कर रहा है; आपत्ति इस बात से है कि भारत ने हाल ही में एक निर्णायक भूमिका निभाते हुए अमेरिका की मध्यस्थता को अस्वीकार कर दिया। भारत-पाकिस्तान के बीच घोषित युद्धविराम पर जब ट्रंप ने बार-बार दावा किया कि उन्होंने ही यह संघर्ष रोका, तो भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट कहा—“अमेरिका इसमें नहीं था।” यही बयान ट्रंप के राजनीतिक आत्ममुग्धता पर चोट करता है।
ऐसी स्थिति में ट्रंप की धमकी नीतिगत नहीं, बल्कि व्यक्तिगत प्रतिक्रिया जैसी जान पड़ती है। वे जैसे अपने पड़ोसी से नाराज़ होकर घर के बच्चों को बाहर खेलने से मना कर दें—वैसे ही वे Apple को भारत से लौट आने को कह रहे हैं। लेकिन यह संभव नहीं है। आज का भारत तकनीकी निर्माण में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। और Apple जैसे ब्रांड अब भारत के सहयोग से वैश्विक बाज़ार की जरूरतें पूरी कर रहे हैं।
यदि ट्रंप सचमुच Apple को भारत से हटाते हैं, तो इसका प्रभाव व्यापक होगा—iPhone की कीमतें बढ़ेंगी, नौकरियाँ जाएँगी, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित होगी, और एक बार फिर टेक्नोलॉजी राजनीति की बलि चढ़ेगी। इतिहास गवाह है—ब्लैकबेरी और नोकिया जैसे ब्रांडों ने यदि समय रहते बाज़ार की नब्ज़ न पकड़ी, तो उनका साम्राज्य भी ढह गया। क्या Apple वही गलती राजनीतिक दबाव में दोहराएगा?
सिर्फ व्यापार नहीं, ट्रंप की नीतियाँ अब शिक्षा संस्थानों को भी प्रभावित कर रही हैं। हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठानों पर अप्रत्यक्ष हमले और विदेशी छात्रों की संख्या सीमित करने के विचार अमेरिका की साख को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर कर सकते हैं। भारत और चीन जैसे देशों से आने वाले छात्र अकेले 43 अरब डॉलर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जोड़ते हैं।
निष्कर्षतः, ट्रंप का यह ‘अमेरिका फर्स्ट’ मॉडल जब व्यक्तिगत अहंकार की ज़मीन पर टिकता है, तो वह देश के दीर्घकालिक हितों से टकरा जाता है। भारत और अमेरिका के बीच गहराते रणनीतिक संबंधों के बीच यह व्यापारिक टकराव एक नई चुनौती बनकर उभरा है। सवाल यही है—क्या राजनीति को टेक्नोलॉजी पर हावी होने दिया जाएगा? या Apple अपने विवेक से आगे का रास्ता तय करेगा?