वाव-थराद:जन-जन का मंगल करने वाले, जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वाव की धरा पर नौदिवसीय प्रवास कर रहे हैं। सोमवार को भव्य स्वागत जुलूस के साथ वाव में पधारे आचार्यश्री के स्वागत में मानों श्रद्धा का ज्वार उमड़ आया था। भक्तों की वह उत्साहपूर्ण भावना आज भी दिखाई दे रही थी। सूर्योदय पूर्व से ही वाव में स्थित तेरापंथ भवन में श्रद्धालुओं की विराट उपस्थिति से परिसर जनाकीर्ण बना हुआ था। वाववासी इस सौभाग्य का पूर्ण लाभ उठाने का आतुर नजर आ रहे थे।
भवन से कुछ ही दूर पर बना भव्य वर्धमान समवसरण आचार्यश्री के मंगल पदार्पण से पूर्व ही श्रद्धालुओं से भरा हुआ दिखाई दे रहा था। युगप्रधान आचार्यश्री मंचासीन हुए तो भक्तों के बुलंद जयघोष वातावरण गुंजायमान हो उठा। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने वाववासियों को उद्बोधित किया।
तदुपरान्त जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनमेदिनी को पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि आसक्ति और अनासक्ति को समझाने के लिए शास्त्रकार ने एक दृष्टांत देते हुए कहा है कि मिट्टी के दो गोले लिए गए। एक गीली मिट्टी का गोला और दूसरा सुखी मिट्टी का गोला था। दोनों को दीवार पर फेंका गया, जो गीली मिट्टी का गोला था वह दीवार से चिपक गया और जो सुखा मिट्टी का गोला था, उसकी मिट्टी नीचे गिर गई। इस उदाहरण से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि आसक्ति से युक्त व्यक्ति वह पदार्थों और विषयों से चिपका रहता है और जो अनासक्त रहता है तो वह पदार्थों और विषयों से चिपकता नहीं है। आसक्ति और अनासक्ति अध्यात्म और भौतिक जगत को बताने वाले तत्त्व है। एक आदमी भोजन करता है तो वह उसके प्रति मोह, लालसा और आसक्ति रखता है। दूसरा आदमी अपने शरीर और साधना के लिए भोजन करता है, वह मानों अनासक्ति के भाव से भोजन ग्रहण करता है। आसक्ति के भाव से युक्त होकर यदि कोई कार्य किया जाता है तो कर्म का बन्धन सघनता के साथ होता है और अनासक्त भाव से होता है तो पाप कर्मों की सघनता से बचाव हो सकता है। सघनता से बचाव होता है तो उसकी अगली गति भी अच्छी हो सकती है।
जो अस्वाद वृत्ति वाले साधक होते हैं, उन्हें भोजन में स्वाद की अपेक्षा नहीं होती, उन्हें जो प्राप्त हो गया, उसमें वे संतोष कर लेते हैं। वे मनोज्ञ खाद्य पदार्थों की प्रशंसा नहीं और अमनोज्ञ पदार्थों की निंदा आदि भी नहीं करता। गृहस्थ जीवन के परिवेश में आदमी को आसक्ति को कम करने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ आदमी धन के प्रति ज्यादा मोह नहीं रखना चाहिए। जीवन को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है, लेकिन वह जीवन को चलाने का साधन मात्र है, साध्य तो मूल से मोक्ष की प्राप्ति होना चाहिए। इसलिए साधन पर आकर्षित होकर वहीं अटकना नहीं चाहिए, बल्कि अपनी मंजिल की ओर आगे गति करते रहने का प्रयास होना चाहिए। व्यक्तियों के प्रति कर्त्तव्य की भावना से कार्य किया जा सकता है, किन्तु बहुत ज्यादा मोह नहीं रखना चाहिए। मोह को यथासंभवतया कम करने का प्रयास करना चाहिए। अनासक्ति की भावना रखने से यथासंभवतया पाप कर्मों के सघन बंध से बचाव हो सकता है। आदमी को अपने जीवन में अनासक्ति के प्रति जागरूकता रखने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री के स्वागत में प्रवास व्यवस्था समिति की ओर से श्री नरेश परिख, श्री प्रवीणभाई मेहता व श्री अशोकभाई संघवी ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। वाव व्यवस्था समिति के लोगों ने स्वागत गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपने आराध्य के समक्ष अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला की प्रशिक्षिकाओं ने भी गीत का संगान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल ने भी अपनी प्रस्तुति दी। ‘वाव संघ समर्पण गौरव गाथा’ गीत को परिख परिवार ने प्रस्तुति दी। आचार्यश्री ने सभी को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।