“आप सांप को कितना भी दूध पिला लीजिए, लेकिन जिस दिन उसे मौका मिलेगा, वह डसेगा ही।”
यह कहावत केवल लोकजीवन का अनुभव नहीं, अब भारत की कूटनीतिक स्मृति का हिस्सा बन चुकी है — विशेषकर जब हम तुर्की और अज़रबैजान की ओर दृष्टिपात करते हैं।
वर्ष 2023 की बात है। भूकंप की विभीषिका ने तुर्की को झकझोर कर रख दिया था। संसार तमाशबीन बना रहा, परंतु भारत ने ‘ऑपरेशन दोस्त’ के अंतर्गत मानवीय करुणा की सबसे उजली मिसाल पेश की। सैकड़ों टन राहत सामग्री, चिकित्सक, एनडीआरएफ की टीमें, फील्ड हॉस्पिटल — यह सब उस देश के लिए था, जिससे भारत का कोई भौगोलिक या सांस्कृतिक गठजोड़ नहीं, केवल इंसानियत का रिश्ता था।
किन्तु समय ने करवट ली। मई 2025 में जब भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के माध्यम से आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक प्रहार किया — तब वही तुर्की और अज़रबैजान, जिनके ज़ख्मों पर भारत ने मरहम रखा था, पाकिस्तान के साथ खड़े हो गए। न केवल शब्दों से, बल्कि हथियारों से भी। भारत पर हो रहे ड्रोन हमलों में प्रयुक्त तकनीकें ‘मेड इन टर्की’ पाई गईं।
यह केवल राजनीतिक विमर्श का विषय नहीं, आत्मा में चुभने वाला विश्वासघात था।
मानवता पर मजहबी राजनीति की विजय
तुर्की और अज़रबैजान का यह व्यवहार किसी कूटनीतिक असहमति से प्रेरित नहीं था। यह इस्लामिक एकता के नाम पर ओआईसी के मंच से किया गया स्पष्ट सांप्रदायिक पाला बदल था। भारत को यह सीधा संदेश दिया गया — नैतिकता नहीं, मजहबी वफादारी हमारे निर्णयों की कसौटी है।
और तब, भारत ने भी प्रश्न उठाया —
“क्या हम अपनी मेहनत की कमाई उन देशों को दें जो हमारे शहीदों की शहादत पर मौन नहीं, उपहास करते हैं?”
जन-आक्रोश और आर्थिक प्रतिरोध की लहर
इस प्रश्न ने जनभावना को उद्वेलित किया। सोशल मीडिया पर #BoycottTurkey और #BoycottAzerbaijan मात्र हैशटैग नहीं रहे, वे एक राष्ट्र की चेतना का स्वर बन गए। ट्रैवल कंपनियों, टूर ऑपरेटर्स और स्वयं कलाकारों ने अपने स्तर पर विरोध प्रकट किया। प्रसिद्ध गायक विशाल मिश्रा ने घोषणा की — न अब तुर्की की धरती पर पैर रखेंगे, न अज़रबैजान की महफिलों में सुर छेड़ेंगे।
यह प्रतिरोध भावनात्मक अवश्य था, परन्तु तथ्यात्मक भी:
- 2024 में 3.3 लाख भारतीय पर्यटक तुर्की गए,
- हर यात्री ने औसतन ₹85,000 से ₹1,00,000 तक खर्च किया,
- लगभग ₹8000 करोड़ भारत से तुर्की की अर्थव्यवस्था में गया।
अब यही धन अप्रत्यक्ष रूप से उन गतिविधियों को पोषित कर रहा है जो भारत के खिलाफ हैं। यह केवल ‘बहिष्कार’ नहीं, आत्मरक्षा है — वैचारिक, नैतिक और आर्थिक।
नीति का उत्तर नीतिगत दृढ़ता से
यह पहला अवसर नहीं जब भारत ने अपने विरोधियों को आर्थिक भाषा में उत्तर दिया। मालदीव भी भारत-विरोधी रुख अपनाकर पीछे हट चुका है — पर्यटन बहिष्कार और व्यापारिक प्रतिबंधों के दबाव में। वही नीति अब तुर्की और अज़रबैजान के लिए संकल्प बन चुकी है।
गुजरात टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन, ई-माय ट्रिप, पिक्यूलर ट्रेल जैसी संस्थाओं ने इन दोनों देशों की बुकिंग्स स्थगित कर दी हैं। अब भारतीय पर्यटक मध्य एशिया की बजाय पूर्वोत्तर भारत, भूटान, नेपाल और यूरोपीय विकल्पों की ओर उन्मुख हो रहे हैं।
एकजुट भारत की पुकार
भारत ने स्पष्ट कर दिया है —
“हम न मित्रता के नाम पर मूर्ख बनेंगे, न पर्यटन के नाम पर आतंकवाद का पोषण करेंगे।”
अब यह लड़ाई सिर्फ सरहदों की नहीं, स्मृति और स्वाभिमान की है।
यह एक राष्ट्र की आत्मा की पुकार है जो कह रही है:
अब न तुर्की जाना है, न अज़रबैजान।
अब न दोस्ती दिखानी है, न भरोसा करना है।
यह केवल बहिष्कार नहीं — यह आत्मसम्मान की रक्षा है।
जय माँ भारती