वक्फ संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों से स्वीकृति प्राप्त होना इस तथ्य का प्रमाण है कि केंद्र की तीसरी पारी में भी मोदी सरकार अपने नीति-आधारित एजेंडे को सशक्त रूप से आगे बढ़ाने में सक्षम है। इस विधेयक की पारिती से उन कयासों को विराम मिल गया है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा के 240 सीटों पर सिमटने से सरकार निर्णयात्मक स्थिति में नहीं रहेगी। यह विधेयक इसलिए भी पारित हो सका, क्योंकि भाजपा के सहयोगी दलों ने इसके समर्थन में एकजुट होकर साथ दिया।
विपक्षी दलों का यह अनुमान विफल सिद्ध हुआ कि यदि भाजपा के सहयोगी दल इस विधेयक का समर्थन करेंगे, तो उन्हें राजनीतिक स्तर पर मूल्य चुकाना पड़ेगा। इस विधेयक के पारित होने के बावजूद विपक्ष इसे संविधान विरोधी और मुस्लिम-विरोधी करार देने पर तुला हुआ है। दुर्भाग्यवश वे यह तथ्य उपेक्षित कर रहे हैं कि कई मुस्लिम नेता और संगठन स्वयं इस विधेयक का समर्थन कर रहे थे। इन संगठनों ने वक्फ बोर्डों में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल खोलते हुए यह भी स्पष्ट किया कि वक्फ संपत्तियां गरीब मुसलमानों के कल्याण में अपेक्षित भूमिका निभाने में असफल रही हैं।
विधेयक के विरोध में उठने वाले स्वर यह स्पष्ट नहीं कर सके कि वक्फ बोर्डों ने अब तक कितने स्कूल, अस्पताल या जनसेवा के अन्य केंद्र स्थापित किए हैं। इसके बावजूद वे इस बात पर अड़े रहे कि वक्फ अधिनियम में किसी प्रकार का संशोधन आवश्यक नहीं। यह एक सकारात्मक और समयोचित सुधार की अवहेलना है, जो न केवल जनकल्याण में बाधक है, बल्कि विधि-व्यवस्था की भावना के भी प्रतिकूल है।
प्रश्न यह उठता है कि किसी ऐसे कानून में सुधार क्यों न किया जाए, जो अनेक विसंगतियों से ग्रसित हो और जो अपने मूल उद्देश्यों की पूर्ति करने में विफल रहा हो? पुराना वक्फ कानून वक्फ बोर्डों को अत्यधिक और मनमाने अधिकार प्रदान करता था, साथ ही उनकी निर्णय प्रक्रिया के विरुद्ध न्याय पाने के मार्ग अत्यंत सीमित थे। किसी निर्णय के विरुद्ध अपील वक्फ ट्रिब्यूनल में ही संभव थी, और यदि ट्रिब्यूनल का निर्णय प्रतिकूल हो, तो उच्च न्यायालय में अपील का अवसर भी सीमित था। यह स्थिति न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध थी।
फिर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ राजनीतिक दल और नेता अब भी पुराने कानून की पक्षधरता में लगे हैं। विधेयक के कानून बनते ही कुछ विपक्षी नेताओं द्वारा इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा करना उनका संवैधानिक अधिकार अवश्य है, किन्तु यह प्रवृत्ति भी चिंताजनक है कि संसद द्वारा पारित प्रत्येक कानून को न्यायालय में चुनौती देना एक राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है। केवल विरोध के लिए विरोध करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए हितकारी नहीं कहा जा सकता।
यह पहला अवसर नहीं है, जब मोदी सरकार के किसी कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई हो। पूर्व में भी अनेक विधेयकों के विरुद्ध सैकड़ों याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। संशोधित वक्फ कानून भी यदि इस सूची में शामिल होता है, तो इसमें आश्चर्य नहीं होगा। किंतु इतना तो स्पष्ट है कि यह विधेयक वक्फ संपत्तियों के पारदर्शी और न्यायपूर्ण प्रबंधन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो समय की मांग भी है और समाज के हित में भी।