मुझे फ़िल्में देखने का बेहद शौक था। हर नई रिलीज़ का इंतज़ार करती थी। आज जब समय भी है, OTT जैसे हज़ार विकल्प भी हैं, फिर भी कोई फ़िल्म देखना मन को नहीं भाता। प्लेटफ़ॉर्म खोलती हूँ, टाइटल्स स्क्रॉल करती हूँ और फिर बिना कुछ देखे ही वापस आ जाती हूँ।
क्यों? क्योंकि मुझे आज की फ़िल्में झूठ लगती हैं। उनमें दिखने वाले चेहरे झूठ लगते हैं। जिन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को हम ‘हीरो’ मान बैठे हैं, असल में वे रीढ़विहीन, मौक़ापरस्त और कायर लोग हैं।
‘मिशन सिन्दूर’ जैसे राष्ट्र के स्वाभिमान से जुड़े अहम सैन्य अभियान पर जब देश को एकजुटता की ज़रूरत थी, जब हमारे सैनिक सरहद पार जान हथेली पर रखकर देश का झंडा लहरा रहे थे — उस समय ये बॉलीवुड के चमकते चेहरे मुँह में दही जमा कर बैठे रहे। एक ट्वीट तक नहीं कर सके। एक शब्द समर्थन का नहीं बोले।
लेकिन आप देखिएगा, कुछ समय बाद जब इस पर फ़िल्म बनेगी, यही लोग उस कहानी के नायक बनकर बड़े पर्दे पर छा जाएंगे। वही लोग जो संकट के समय देश के साथ खड़े नहीं हो सके, वे देशभक्ति की एक्टिंग करेंगे।
क्या यही हमारे ‘हीरो’ हैं?
नकली देशभक्ति, इंस्टाग्राम स्टोरीज़, रेड कारपेट पर झंडा थामे फोटो — इन सबका कोई मतलब नहीं रह जाता जब सच्चे समय पर ये लोग चुप रहते हैं। ये वो लोग हैं जो देश के नाम पर पैसा और शोहरत तो कमाना जानते हैं, लेकिन संकट के समय एक शब्द भी नहीं बोल सकते।
हमें ये स्वीकार करने की ज़रूरत है कि ये ‘स्टार्स’ सिर्फ़ पर्दे के नायक हैं, असल ज़िंदगी में कायर हैं।
और अफ़सोस की बात ये है कि इनकी चुप्पी से ज़्यादा शर्मनाक बात है — हम जनता का इनका अंधा अनुसरण। हम ही हैं जो इन्हें ‘गॉड’ बना देते हैं, इनके नकली आँसुओं और रटाए गए संवादों पर तालियाँ बजाते हैं। पर कभी सोचा है — जब देश की असली लड़ाई हो, तब ये सब कहाँ होते हैं?
मैंने देखा कि सिर्फ़ कलाकार ही नहीं, मेरे कुछ बुद्धिजीवी मित्र भी इस घोर संकट के समय मौन साधे बैठे थे। कोई ये कहता रहा कि “हम न्यूट्रल हैं”, कोई “अंधभक्ति नहीं करते” का झंडा लेकर बैठा रहा। क्या न्यूट्रल होना भी एक विकल्प है जब देश की अस्मिता दांव पर लगी हो?
ये लोग न इधर के हैं न उधर के। न इनकी रीढ़ है, न दृष्टि। ये बस अपनी सुविधा देखते हैं।
मित्रता बनी रहेगी, पर अब उनके लिए सम्मान नहीं बचा। और न ही उन कलाकारों के लिए जो आज चुप हैं लेकिन कल ‘हीरो’ बनकर पुरस्कार बटोरेंगे।
हमें तय करना होगा — क्या हम अब भी इन छद्म नायकों को अपना आदर्श मानते रहेंगे? या अब समय आ गया है कि इनका पर्दाफ़ाश करें और सच्चे नायकों को सम्मान दें — वे जो सरहद पर, वर्दी में, ख़ामोशी से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
देश ने हमें नाम दिया, पहचान दी — और जब देश संकट में हो, तब हम उस पहचान के लिए नहीं बोलेंगे तो फिर किसलिए?
कभी तो अपनी रीढ़ सीधी करनी होगी…
झुकना प्रेम में अच्छा लगता है, पर देशहित में नहीं।