विपक्ष लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रहा है, और अब एनडीए की सहयोगी पार्टी जेडीयू ने भी विपक्ष का समर्थन किया है। जेडीयू ने यह भी कहा है कि जाति आधारित जनगणना को संसदीय समिति में चर्चा के लिए शामिल किया जाना चाहिए। आजादी के बाद से भारत सरकार ने कभी जातिगत जनगणना नहीं करवाई है। हालांकि, यूपीए सरकार ने जनगणना के समय जातियों का डेटा जरूर इकट्ठा करवाया था, लेकिन इसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया जा सका है।
सोशियो-इकोनॉमिक कास्ट सेंसस (SECC) का उद्देश्य
यूपीए 2 के दौरान, सरकार ने गरीबों के लिए अपनी योजनाओं का विस्तार करना चाहा और गरीबी का सही आकलन करने के लिए शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में सोशियो-इकोनॉमिक कास्ट सेंसस कराने का निर्णय लिया। इसके लिए कुछ नियम निर्धारित किए गए थे, जिनके तहत कुछ वर्गों को स्वतः ही गरीबों की सूची में शामिल किया गया। उदाहरण के लिए, यदि किसी परिवार के पास कार या तीन कमरों वाला पक्का मकान था, तो उसे सीधे गरीबी रेखा से बाहर कर दिया गया। दूसरी ओर, सिंगल मदर और मैला ढोने वालों को गरीबी रेखा के नीचे की सूची में रखा गया। इस सेंसस का मुख्य उद्देश्य परिवारों का सामाजिक-आर्थिक स्तर पर निर्धारण करना था, साथ ही जाति के आधार पर उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का भी पता लगाना था।
2011 की जनगणना में जातिगत आंकड़े
27 मई 2010 की बैठक में कांग्रेस के नेतृत्व ने तय किया कि 2011 की जनगणना के साथ ही जाति के आधार पर आंकड़े भी इकट्ठा किए जाएं। इससे सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर तथ्यात्मक जानकारी सामने आएगी। हालांकि, इस जनगणना में केवल गिनती की जानी थी, जाति के आधार पर किसी के सामाजिक और आर्थिक स्तर की जानकारी पर सहमति नहीं बनी थी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अगुआई में कुछ मंत्रियों को यह काम सौंप दिया।
जब जनगणना का काम शुरू हो चुका था, तब यह निर्णय लिया गया। सरकार ने 2011 की जनगणना के लिए 2200 करोड़ रुपये का आवंटन किया था। एनसी सक्सेना के नेतृत्व में एक ग्रुप ने प्रस्ताव रखा कि कुछ वर्गों को स्वचालित रूप से बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) में रखा जाए और कुछ को बाहर कर दिया जाए। भूमि, वाहन, खेती के उपकरणों और इनकम टैक्स के आधार पर यह तय किया जाना था। वहीं, आदिवासियों, महादलितों, सिंगल महिलाओं, दिव्यांगों और बेघरों को स्वचालित रूप से बीपीएल श्रेणी में शामिल करने का प्रस्ताव रखा गया। इसके अलावा अन्य लोगों को जाति, समुदाय, धर्म, काम, शिक्षा और घर के मुखिया की उम्र के आधार पर आंका जाना था।
आलोचकों का मानना था कि एनसी सक्सेना का यह प्रस्ताव असली गरीबों की पहचान करने में कारगर नहीं होगा। इससे एससी और एसटी वर्ग में गरीबों की सही पहचान नहीं हो पाएगी। इसके अलावा, धोबी, कुम्हार, नाई, स्वीपर, सफाईकर्मी और बुनकरों को इस सेंसस में केवल दो पॉइंट मिलते। इसलिए निर्णय लिया गया कि एससी और एसटी की गणना अलग से की जाएगी।
2011 की जनगणना ग्रामीण विकास मंत्रालय के जिम्मे थी, जबकि शहरी क्षेत्रों की जनगणना शहरी विकास मंत्रालय को सौंपी गई थी। जातिगत जनगणना का कार्य गृह मंत्रालय, रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया और सेंसस कमिश्नर को सौंपा गया था। सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस का डेटा मंत्रालयों को जारी करना था, लेकिन जातिगत गणना के आंकड़े जारी करने पर रोक लगा दी गई। कुछ अधिकारियों के अनुसार, लोगों का जाति बताने का तरीका अलग-अलग था। कुछ लोग उपजाति बताते थे, तो कुछ लोग समुदाय के आधार पर जाति बताते थे। इसके बाद 2022 में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने संसद में बताया था कि फिलहाल जाति आधारित आंकड़ा जारी करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। वहीं, एनडीए सरकार ने अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी, जिसका उद्देश्य जनगणना से जातिगत आंकड़े अलग करना था। हालांकि, यह आंकड़ा अब तक जारी नहीं हो सका है।