छापर, चूरू (राजस्थान) : 74 वर्षों बाद तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य परम पूज्य आचार्यश्री कालूगणी की जन्मभूमि छापर में वर्ष 2022 का चतुर्मास कर रहे तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, मानवता के मसीहा शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी के छापर में विराजमान हो जाने से यह छापर नगरी मानों तीर्थस्थल बन गया है। देश ही नहीं विदेशों से भी श्रद्धालु आचार्यश्री के दर्शन और सेवा के लिए उपस्थित हो रहे हैं। आचार्यश्री का प्रवास स्थल नगर के मध्य होने के कारण जैनेतर जनता को भी अपने मानवता के मसीहा के निकट से दर्शन और उनके प्रवचन श्रवण का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भी जन-जन का कल्याण करने के उद्देश्य से भगवती सूत्र पर आधारित मंगल प्रवचन के उपरान्त कालूयशोविलास का संगान और स्थानीय भाषा में व्याख्यान भी दे रहे हैं।
गुरुवार को आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने भव्य प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि शास्त्रकार से प्रश्न किया गया कि लेश्याएं कितने प्रकार की होती हैं। उत्तर दिया गया कि छह प्रकार की लेश्याएं होती हैं- कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। भगवती सूत्र और पन्नवणा नामक आगम में लेश्या का वर्णन प्राप्त होता है। लेश्या का अर्थ भावधारा या परिणाम धारा होता है। लेश्या के द्वारा कर्म पुद्गलों का समावेश होता है। लेश्या का एक अर्थ रश्मि भी बताया गया है। शरीर, वीर्य, लब्धि, कषाय का उदय या विलय हो। प्राणी का शुभ अथवा अशुभ परिणाम ही लेश्या है। जहां योग है, वहां लेश्या है, जहां योग नहीं, वहां लेश्या नहीं होती। लेश्या योग की सहचर होती है। तेरहवें गुणस्थान तक लेश्या होती है। लेश्या के साथ पुद्गलों का संयोग होता है। अच्छे पुद्गल और बुरे पुद्गल अथवा अच्छे-बुरे भाव के कारण लेश्या भी अच्छी और बुरी होती है। प्रथम तीन लेश्याएं बुरी और शेष तीन लेश्याएं अच्छी लेश्याएं होती हैं। कृष्ण, नील व कपोत लेश्याएं अधर्म लेश्या अथवा अशुभ लेश्याएं होती हैं तो तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या धर्म लेश्या अथवा शुभ लेश्याएं होती हैं। प्राणी की भावधारा को बताने के लिए छह विभाग किए गए जो लेश्याएं कहलाती हैं। आदमी को अपनी भावधारा को अच्छा बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का समधुर संगान करते हुए स्थानीय भाषा में आख्यान प्रदान करते हुए कहा कि मुनि कालू दीक्षित होने के बाद अपने गुरु मघवागणी की सन्निधि में ऐसे रह रहे हैं, मानों उनकी गोद में विकास कर रहे हैं। संस्कृत भाषा के प्रति उनका रुझान बढ़ा। आचार्य मघवागणी उनका सहारा लेकर चलते तो कभी उनके कंधे पर भी हाथ रख देते, मानों उन्हें धर्मसंघ का भार सौंप रहे हों। कुछ समय बाद नियति का योग होता है कि आचार्य मघवागणी ने अपनी अस्वस्थता के कारण माणकगणी को युवाचार्य पद प्रदान करते हैं और कुछ दिनों बाद ही उनका महाप्रयाण हो जाता है, मानों तेरापंथ धर्मसंघ का पांचवा अध्याय सम्पन्न हो जाता है। अपने गुरु के महाप्रयाण से मूनि कालू को काफी ठेस-सी लगती है। स्थानीय भाषा में आचार्य कालूगणी के जीवन वृत्त को सुनकर छापरवासी निहाल हो रहे हैं।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्याजी ने श्रद्धालुओं को उद्बोधित किया। कार्यक्रम के अंत मंे मुनि विकासकुमारजी ने गीत के माध्यम से श्रद्धालुओं को तपस्या के लिए उत्प्रेरित किया। श्री सुरेन्द्र बुच्चा ने आचार्यश्री से ग्यारह की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।