रविवार, छापर, चूरू (राजस्थान) :74 वर्षों बाद छापर की धरा पर जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी का भव्य चतुर्मास हो रहा है। यह चतुर्मास छापरवासियों के लिए मंगलकारी तो है ही, इसका लाभ आसपास के क्षेत्रों को भी प्राप्त हो रहा है। बीस से तीस किलोमीटर के दायरे में आने वाले श्रद्धा के क्षेत्रों से मानों नियमित रूप से श्रद्धालु आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उपस्थित हो रहे हैं और इस सुअवसर का पूर्ण लाभ प्राप्त कर रहे हैं। आचार्यश्री के श्रीमुख से नियमित होने वाला प्रवचन भी लोगों को नित नवीन प्रेरणा प्रदान करने वाला बन रहा है। भगवती सूत्राधारित मंगल प्रवचन के बाद अष्टमाचार्य कालूगणी की धरा पर कालूयशोविलास के माध्यम से उनके जीवनवृत्त का सुमुधर संगान और स्थानीय भाषा में व्याख्यान जन-जन के मन को आनंदित करने वाला है।
रविवार को आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चतुर्मास प्रवास स्थल में बने प्रवचन पंडाल से श्रद्धालुओं को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि प्रश्न करना और उत्तर प्राप्त करना ज्ञान वृद्धि का अच्छा मार्ग है। आदमी के पास जिज्ञासा ही नहीं हो तो वह भला कितना ज्ञान प्राप्त कर सकता है। कोई जिज्ञासु है, प्रश्न पूछता है तो उसको तो उत्तर प्राप्त होता ही है, उसके साथ-साथ कइयों को भी प्रतिबोध प्राप्त हो सकता है वे भी उससे लाभान्वित हो सकते हैं। इसलिए एक के पूछने से कई बार कई अन्य लोगों को भी समाधान प्राप्त हो जाता है। देखा जाए तो प्रश्नकर्ता एक रूप में स्वतंत्र होता है, क्योंकि वह कोई भी प्रश्न पूछ सकता है, किन्तु उत्तरप्रदाता कुछ अंशों में मानों सवाल की सीमा से बंधा परतंत्र-सा प्रतीत होता है, क्योंकि उसे तो उसी प्रश्न का उत्तर देना होता है, जो प्रश्न किया गया है। अन्यथा की बातों का कोई मतलब नहीं होता।
भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया है कि क्या वही सत्य है जो जिनों अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा कहा गया है। उत्तर मे ंकहा गया कि हां, जो जिनों अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा प्रदान किया गया है, वही ज्ञान सत्य है। ज्ञान अनंत है तो उत्तरदाता अपनी सीमा में उत्तर का जवाब देता है। अल्पज्ञ भला कितना ज्ञान का अर्जन कर सकता है। सच्चाई के अन्नवेषण की दृष्टि से कई बार हर बात का निर्णय करना कठिन हो सकता है। आदमी के पास मतिश्रुत ज्ञान है, इससे बताना पाना मुश्किल है। इसलिए केवलज्ञानियों द्वारा प्रदत्त धर्मग्रंथ को ही सत्य मानने का प्रयास करना चाहिए। शुभाधिगम, दुर्धिगम और अनधिगम ज्ञेय तीन प्रकार के ज्ञेय है। इसके माध्यम से आदमी सत्य को जाने और जिनवाणी पर श्रद्धा विश्वास रखे। इन्द्रियों का संयम करे और फिर सत्य की खोज करे तो उसे अच्छा लाभ प्राप्त हो सकता है।
आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से आचार्य डालगणी के आचार्यकाल के प्रारम्भ होने का स्थानीय भाषा में वर्णन करते हुए कहा कि आचार्य बनने के बाद डालगणी ने मुनि मगनजी को अपने पास बुलाया और अपने नाम के चयन से संबंधित प्रक्रिया की जानकारी चाही, कई बार उन्होंने उस प्रश्न को टालने का प्रयास किया तो उन्होंने द्वितीय विकल्प के रूप में मुनि कालू का नाम बताया।
कार्यक्रम में आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखाजी व साध्वीवर्याजी ने श्रद्धालुओं को उद्बोधित किया। साध्वी सुषमाकुमारीजी ने तपस्या से संबंधित जानकारी प्रदान की। इस दौरान रतलाम से बड़ी संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री के समक्ष बड़े ही रोचक ढंग से चतुर्मास की अर्ज की। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में रतलाम के श्रद्धालुओं को आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि चतुर्मास का निवेदन बहुत ही रोचक ढंग से किया गया, इसमें मानों बौद्धिकता की परिपूर्णता नजर आ रही है। इस दौरान मुनि सत्यकुमारजी ने भी अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी।