छापर, चूरू (राजस्थान) भगवती सूत्र में एक प्रश्न अठारह प्राणातिपात क्रियाओं के संदर्भ में है। प्रश्न किया गया कि क्या जीवों के प्रणातिपात क्रिया होती हैं। उत्तर दिया गया कि हां! होते हैं। पच्चीस बोल में आता है-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, माया मृषावाद, मिथ्यादर्शनशल्य। यहां पाप शब्द का प्रयोग नहीं, क्रिया कहा गया है। क्रिया का अर्थ प्रवृत्ति से प्राणी के हलन-चलन से है। इन क्रियाओं से पापकर्म का बन्ध होता है। इस प्रकार आठरह क्रियाएं हो जाती हैं। इनके संदर्भ में तात्विक दृष्टि से तीन चीजें-प्राणातिपात पापस्थान, प्राणातिपात क्रिया और प्राणातिपात परिणिति।
कोई आदमी राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारता है, जीव हिंसा करता है तो मानना चाहिए कि पहले से उसके ऐसे कर्म बंधे हुए हैं, जिसकी प्रेरणा व प्रभाव से वह प्राणातिपात करता है, जो क्रिया हो जाती है और प्राणातिपात की क्रिया से जो पापकर्म का बंधन होता है वह है प्राणातिपात परिणति। इस प्रकार इन आठरह पापों से बंधकर आत्मा भारी बनती है। मनुष्य को फिर इसका परिणाम भी भोगना पड़ता है, दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए आदमी इन आठरह पाप क्रियाओं से स्वयं को बचाने का प्रयास करे। साधु के लिए तो सर्व सावद्य योग के जीवन भर का त्याग होता है, फिर भी कोई प्रमाद हो जाए तो भी दोष लगते हैं। इसलिए साधु भी आलोयणा, प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण आदि-आदि करते हैं।
आदमी अपने जीवन को इन आठरह पापों से बचाने का प्रयास करे। श्रावक भी कुछ-कुछ अंशों में इन पापों से जीवन भर के लिए त्याग कर ले और फिर जब सामायिक आदि करता है तो उसके भी सावद्य योग का त्याग हो गया। हालांकि श्रावक का त्याग पूर्णतया त्याग नहीं होता है। सामायिक में भी छह, आठ और नौ कोटि होती है। सामायिक के समय यदि कोई प्रमाद हो जाए तो उसकी आलोयणा आदि लेकर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। स्वयं को पापकर्मों से बन्धन से बचाते हुए मुक्ति की दिशा में गति करने का प्रयास करना चाहिए। उक्त पावन पाथेय शुक्रवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने छापर चतुर्मास के मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में प्रदान कीं।
आचार्यश्री कालूयशोविलास के सुमधुर संगान और रोचक प्रस्तुति ढंग से आचार्य डालगणी के द्वारा किए गए अपने उत्तराधिकारी के नाम को गुप्त ही रखा, किन्तु उसे इंगित रूप में लाडनूं के ठाकुर आनंद सिंह को प्रदान किया। हालांकि आचार्य डालगणी मुनि कालू का उपयोग भी करते। इस प्रकार आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का आख्यान किया।
कार्यक्रम में जैन विश्वभारती के पदाधिकारियों द्वारा आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा विरचित ‘सम्बोधि’ ग्रन्थ की अंग्रेजी भाषा में अनुवादित पुस्तक को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया गया। इस पुस्तक के अनुवाद में श्रम करने वाली साध्वी वीरप्रभाजी ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी। इस पुस्तक में सहयोग देने वाली सुश्री सोनल पीपाड़ा ने भी गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने पुस्तक के संदर्भ में आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि अंग्रेजी भाषा के जानकार पाठकों के लिए यह उपयोगी पुस्तक है।