सिखों के दस गुरुओं में से एक थे गुरु तेग बहादुर। उन्होंने ही सिख धर्म की नींव रखी थी। गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। 1 अप्रेल 1621 में पंजाब के अमृतसर में जन्में गुरु तेग बहादुर गुरु हरगोविंद, जो कि सिखों के छठे गुरु थे, के सबसे छोटे बेटे थे। उनके द्वारा रचित 115 भजन श्री गुरुग्रंथ साहिब का हिस्सा है। वे हमेशा ही गुरु नानक देव के बताए रास्ते चले और वीरता की अदभुत मिसाल कायम की। उन्होंने कश्मीरी पंडितों और अन्य हिदुंओं को बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाने का जबरदस्त विरोध किया।
1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें भी इस्लाम स्वीकार करने को कहा था। इसके जवाब में गुरु तेग बहादुर ने कहा था कि वो अपना सिर कटा सकते हैं लेकिन केश कभी नहीं कटाएंगे। इस जवाब को सुन औरंगजेब बौखला गया और उसने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया था। दिल्ली स्थित गुरुद्वारा शीश गंज साहिब और गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण कराते हैं जहां उनकी हत्या की गयी तथा जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनका पूरा जीवन ही वीरता को समर्पित रहा है।
गुरु तेग बहादुर ने धर्म के प्रचार के लिए कई जगहों की यात्राएं की। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाया। खिआला (खदल) में उन्होंने लोगों को सच की राह पर चलने का उपदेश दिया और वहां से दमदमा साहब होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर आए और यहां पर साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
प्रयाग, बनारस, पटना, असम जैसे अनेकानेक जगहों पर जाकर उन्होंने लोगों को सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए निर्भीक बनने का पाठ पढ़ाया। उन्होंने लोगों के उत्थान के लिए कई तरह के कार्य किए। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढिवादी परपंराओं और अंधविश्वासों को दूर करने के लिए उन्होंने लोगों को जागरुक किया। समाजसेवा के तौर पर उन्होंने जगह-जगह कुएं खुदवाए, धर्मशालाएं बनवाईं। 1666 में गुरु तेज बहादुर जी के थे, तभी उनके पुत्र और सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ था।
जानकार मानते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने जहां सिख पन्थ को एकजुट करने में अपनी अहम भूमिका निभाई थी, वहीं गुरु तेग बहादुर मानवाधिकारों की सुरक्षा को सिख पहचान बनाने में मदद की। इसके अलावा गुरु तेग बहादुर के जीवन का प्रभाव उनके बेटे गोबिंद सिंह पर भी पड़ी। उन्होंने खालसा की शुरुआत की थी। 3 फरवरी 1632 को उनका विवाह माता गुजरी से हुआ था।
1640 में जब उनके पिता गुरु हरगोविंद अपनी आखिरी दिनों में पत्नी संग अमृतसर के बकाला में रहने के लिए आए तो उनके साथ गुरु तेग बहादुर और उनकी पत्नी भी थीं। यहां पर ये जगह उस वक्त कई सुंदर तलाबों और बावलियों के लिए जानी जाती थी। पिता की मौत के बाद काफी समय तक गुरु तेग बहादुर यहीं पर रहे थे। कहा जाता है कि एक बार शहर के एक बड़े अमीर व्यक्ति बाबा माखन शाह ने मन्नत मांगी कि यदि वो बीमारी से मुक्त होकर स्वस्थ हो गए तो वो सिख गुरु को 500 स्वर्ण मुद्राएं देंगे।
जब वो ठीक हुआ तो उसने गुरु तेग बहादुर की तलाश की। उसको जो गुरु मिलता गया वो सभी को दो स्वर्ण मुद्राएं देता चला गया। सभी ने उसको आशीर्वाद दिया और लंबी उम्र की कामना की। अंत में वो जब गुरु तेग बहादुर के पास पहुंचा तो उन्हें भी दो स्वर्ण मुद्राएं दीं। इस पर वो बोले तूने तो 500 स्वर्ण मुद्राएं देने का वादा किया था। इस पर वो एकटक गुरु तेग बहादुर को निहारता ही रहा। उसकी आंखों में आंसू थे और होठों पर खुशी थी। वो अपनी खुशी छिपा न सका और चिल्ला पड़ा कि उसने गुरु को तलाश लिया है। 1964 में गुरु तेग बहादुर को सिखों का नौवां गुरु नियुक्त किया गया है। उनके बड़े भाई ने इस रस्म को पूरा किया था।