पाकिस्तान के बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में अलग-अलग घटनाओं में सोमवार को 53 पंजाबी मूल के लोगों को मार डाला गया। इन घटनाओं की जिम्मेदारी अलगाववादी बलूच लिबरेशन आर्मी ने ली है। इन घटनाओं ने पाकिस्तान में किस तरह से संघर्ष छिड़ा है, उसे एक बार फिर दुनिया के सामने उजागर किया है। पाकिस्तान भले ही भारत के साथ कश्मीर को लेकर लड़ता है, लेकिन खुद उसके ही खैबर पख्तूनख्वा, सिंध और बलूच प्रांतों में संघर्ष की स्थिति है। बलूचिस्तान में तो यह संघर्ष सशस्त्र विद्रोह की हद तक है और अकसर उग्रवादी पाक की सेना, पुलिस और सत्ता प्रतिष्ठानों में ज्यादा अहमियत पाने वाले पंजाबियों को निशाना बनाते रहते हैं।
प्रश्न यह है कि बलूच इस तरह पाकिस्तानी पंजाबियों के खून के प्यासे क्यों रहते हैं। इसके कुछ वर्तमान कारण हैं तो वहीं इसका उत्तर इतिहास में भी छिपा है। यह इतिहास भारत विभाजन करा पाकिस्तान का निर्माण कराने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की एक वादाखिलाफी से जुड़ा है। दरअसल भारत की स्वतंत्रता के दौरान ब्रिटिश डोमिनियन यानी अंग्रेजों के नियंत्रण वाले इलाकों को तो भारत या पाकिस्तान का हिस्सा मान लिया गया। इसके बाद बारी थी कि उन क्षेत्रों की जहां किसी राजा या नवाब का शासन था। इन क्षेत्रों के पास विकल्प था कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं। यही नहीं उन्हें खुदमुख्तारी यानी स्वायत्तता का भी विकल्प दिया गया।
15 अगस्त 1947 के बाद 227 दिनों तक बलूचिस्तान के 4 क्षेत्रों कलात, खरान, लासबेला और मकरान के पास स्वतंत्रता बनी रही। ये लोग पाकिस्तान के साथ जाने को तैयार नहीं था। भारत की सीमा दूर थी। खासतौर पर कलात के खान 1876 के समझौते को लागू कराने के पक्ष में थे, जिसके तहत उन्हें स्वायत्तता मिली थी। अंग्रेजों से हुए समझौते में तय था कि विदेश नीति और संचार के मामले ब्रिटिश सरकार के पास रहेंगे और बाकी सब कुछ स्थानीय शासक संभालेंगे। लेकिन परिस्थितियां बदल चुकी थीं। जिन्ना के दबाव में बलूचिस्तान के तीन अन्य हिस्सों खरान, लास बेला और मकरान ने पाकिस्तान में जाने का फैसला ले लिया।
फिर भी कलात के शासक खान मीर अहमद यार खान अडिग रहे। इसके लिए शुरुआती दिनों में जिन्ना भी राजी थे। यहां तक कि जिन्ना की पैरवी पर ही दिल्ली में एक मीटिंग के बाद 5 अगस्त, 1947 को ही कलात को स्वतंत्र घोषित किया गया। जिन्ना ने खरान और लास बेला का भी कलात में विलय करने का सुझाव दिया। इस तरह बलूचिस्तान अस्तित्व में आया। 11 अगस्त को कलात और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता भी हुआ, जिसमें कलात के स्वतंत्र ही रहने पर सहमति बनी थी। यहां तक कि 15 अगस्त को स्थानीय सरकार का झंडा फहराया गया और कलात के शासक के नाम पर खुत्बा पढ़ा गया।
पहले किया वादा और फिर बदल गया जिन्ना का मन
लेकिन जिन्ना का मन कुछ समय बाद ही बदल गया। मोहम्मद अली जिन्ना के दबाव में ब्रिटिश सत्ता ने सितंबर 1947 में कलात के शासकों से कहा कि आपका इतना सामर्थ्य नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों को एक देश के तौर पर डील कर सकें। लेकिन कलात के शासक नहीं माने। यहां तक कि अक्टूबर में जब कलात के खान पाकिस्तान पहुंचे तो वहां उनका किसी राजा की तरह बलूचों ने स्वागत किया। लेकिन पाकिस्तान सरकार के इरादे बदल चुके थे। उन्हें लेने कोई अधिकारी नहीं पहुंचा। जिन्ना का फिर से दबाव बढ़ा तो कलात के खान ने कहा कि बलूचिस्तान में बहुत सी जनजातियां हैं और उनसे पूछकर ही फैसला लेना चाहिए।
कैसे अंग्रेजों की मदद से जिन्ना ने किया धोखे से वार
यहां तक कि जिन्ना के प्रस्ताव पर कलात के खान ने एक मीटिंग भी बलूचिस्तान में बुलाई। लेकिन इसमें पाकिस्तान के साथ जाने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना बहुत चालाक थे और वह धोखा देने का मन बना चुके थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से बात कर कलात के लिए हथियारों की सप्लाई रुकवा दी। अब खान ने बलूच सरदारों से मदद मांगी, लेकिन दो के अलावा बाकी ने इनकार कर दिया। इस बीच जिन्ना ने खरान, लास बेला और मकरान को आजाद घोषित कर दिया। अब अकेला कलात बचा, जिस पर हमला कर दिया गया। इस तरह 26 मार्च, 1948 को कलात पर पाकिस्तान ने कब्जा जमा लिया। लेकिन आज भी बलूचों का एक बड़ा वर्ग पाकिस्तान के नियंत्रण को अवैध मानता है और सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। वे पंजाबियों को प्रभुत्व करने वाला समुदाय मानते हैं, जिसके चलते अकसर उन्हें निशाना बनाते रहते हैं।