युग प्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी के आज्ञानुवर्ती शासन श्री मुनि रविन्द्र कुमार जी एवं मुनि श्री अतुल कुमार जी तेरापंथ भवन बिनोल में बिराज रहे हैं ।
रात्रिकालीन प्रवचन माला में मुनि श्री अतुल कुमार जी ने कहा प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है । प्राणियों की परिस्थितियों में वैषम्य का भी एक अदृश्य कारण है जो कर्म है । कर्म-बंधन और कुछ भी नहींं एक क्रिया की प्रतिक्रिया है । जैसे अंकुर का मूल कारण बीज है और उसे जमीन एवं जल आदि मिलने से अंकुर फूटता है । वैसे ही विभिन्नताएं परिस्थिति से अवश्य प्रभावित होती है परंतु परिस्थिति उसका मूल कारण नहीं है, मूल कारण तो कर्म है । कर्म ही सुख-दुख आदि सांसारिक विविधताओं का कारण है । राजा- रंक, बुद्धिमान-मूर्ख, सुरूप-कुरूप,धनिक-निर्धन, सबल-निर्बल, रोगी-निरोगी, भाग्यशाली-अभागा इन सबमें मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अंतर दिखाई देता है वह सब कर्मकृत है । वह कर्म मनुष्य स्वयं करता है । कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? सभी प्राणी अपने कृत्य कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं । जैन धर्म के समान ही पुराणों में भी वैषम्य का कारण कर्म को स्वीकार किया है । उनके अनुसार यह आत्मा ना तो देव है, ना मनुष्य है और ना पशु है, ना ही वृक्ष है । ये भेद तो कर्म जन्य शरीर रूपी वृत्तियों का है । जीव स्व कर्मानुसार ही उत्पन्न होता है और कर्म से ही मृत्यु को प्राप्त होता है । सुख-दुख ,भय -शोक कर्म से ही होता है । कर्म के बल पर प्राणी इंद्र ब्रह्मपुत्र आदि बनता है । वह स्व कर्म से सर्व सिद्धत्व तथा अमरत्व को भी प्राप्त कर सकता है । ब्राह्मणत्व, देवत्व ,मनुजत्व इत्यादि योनियों को प्राप्त करता है । स्वकृत कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है । जैनागमों के अनुसार अतीत काल में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है । सुख या दुख व्यक्ति के किए गए कार्यों के पारिश्रमिक के रूप में अवश्य मिलता है । उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । कर्म के मुख्यतः दो प्रकार शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल ,धर्म-अधर्म सभी को मान्य हैं । पुण्य कर्म से अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं जबकि पाप कर्म से प्रतिकूलताएं मिलती हैं । कुदरत के फैसले पर कभी शक मत करना अगर सजा मिल रही है तो गुनाह भी हुआ होगा । बुद्धि ,उत्तम-गति ,आयु ,गोत्र, शरीर आदि पुण्य प्रकृतियां हैं जबकि अज्ञान, मिथयात्व, अशुभ गति ,आयु ,शारीरिक संरचना आदि पाप के परिणाम हैं । पुण्य तथा पाप के परिणामों को पुराणों में भी बताया गया है । कर्म के अनुसार ही चिर काल तक जीवित रहने वाला तथा कर्म के प्रभाव से क्षणभर की आयु वाला होता है । कर्म से करोड़ों कल्पों की आयु हो जाती है और कर्म से ही क्षीण आयु वाला होता है । अकरणीय कर्म से जीव रोगी होता है और शुभ कर्म से वह रोग रहित रहता है । कुत्सित कर्म से अंधे और अंगहीन होते हैं । शुभ कर्म से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है तथा अशुभ कर्मों से नरकों में भ्रमण करते हैं । कर्मों में स्वयं में ही वह शक्ति है जिसके कारण जीव को प्राकृतिक रूप से उसके कर्मों का फल मिलता रहता है । किसी सिद्धांत की पुष्टि गीता में भी हुई है । जगत के जीवों का कर्तृत्व या उसके कर्मों का सर्जन प्रभु (ईश्वर) नहीं करता । ना ही उनसे कर्मफल का संयोग कराता है । यह सब स्वभावत: चलता रहता है ।अगर भगवान हमारा भाग्य लिखते तो वो सबसे बढ़िया भाग्य होता । हमारा भाग्य हमारे कर्म, हमारी मुक्त इच्छा द्वारा निर्मित होता है, भगवान की इच्छा से नहीं । भाग्य लिखने वाली कलम हमारे हाथ में ही है । प्रतिदिन हम भाग्य लिख रहे हैं ।
मुनि श्री रविंद्र कुमार जी ने मंगल पाठ सुनाया । प्रवचन में काफी अच्छी संख्या में लोग उपस्थित थे।