अग्नि वैदिककालीन देवता हैं। इसकी पुष्टि ऋग्वेद के प्रथम मंत्र ‘ऊं अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृतविजम्।…’ में अग्नि की आराधना से होती है। इसके पहले अध्याय में नौ श्लोक ‘अग्नि’ को समर्पित हैं। ऋग्वेद के सभी मंडलों और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी उपासना की गई है। इससे पता चलता है कि हजारों साल पहले ही हमारे ऋषियों ने अग्नि के महत्व को जान लिया था। ऋषि ‘यास्क’ ने अग्नि को ‘अग्रणि’ (अग्रणी) कहा है यानी अग्नि का स्थान पहला है। आठ वसुओं में अग्नि का स्थान प्रथम है।
अग्नि का अर्थ है, जो ऊपर की ओर जाता हो। इसकी गति हमेशा ऊपर (आकाश) की ओर रहती है, इसलिए अग्नि कहलाती है। ब्रह्मांड में अग्नि चार रूपों में मौजूद है। पहली आकाश में सूर्य, दूसरी अंतरिक्ष में विद्युत, तीसरी पृथ्वी पर साधारण अग्नि के रूप में और चौथी पाताल में ज्वालामुखी के रूप में।
पृथ्वी पर अग्नि के कई रूप हैं, लेकिन इसके पांच रूप अधिक प्रसिद्ध हैं। यज्ञाग्नि—अग्नि के इस रूप द्वारा मनुष्य लोक कल्याण की भावना से भगवान की स्तुति करता है। भोजाग्नि—अग्नि का यह रूप भोजन पकाने के काम आता है। अग्नि के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आज भी अनेक घरों में भोजन का पहला ग्रास अग्नि को समर्पित करके ही खाना बनाया जाता है। जठराग्नि—अग्नि का यह रूप मनुष्य को पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करता है। दावाग्नि—अग्नि का यह रूप सिर्फ विनाश ही नहीं, कई बार नव-सृजन का कारण भी बनता है। ‘महाभारत’ के अनुसार श्वेतकी के यज्ञों की घी की आहुतियां ग्रहण करने के कारण अग्नि को अजीर्ण हो गया था। अपनी अजीर्णता को उन्होंने श्रीकृष्ण और अर्जुन की सहायता से खांडव वन का दहन करके दूर किया और अपनी खोई हुई शक्ति को दोबारा प्राप्त किया। इससे प्रसन्न होकर अग्नि ने अर्जुन को ‘गांडीव’ धनुष और कृष्ण को ‘कौमोदकी’ गदा प्रदान की थी। खांडव वन के दहन के बाद पांडवों ने यहां इंद्रप्रस्थ राज्य की स्थापना की। अग्नि अपने पांचवें रूप में मनुष्य की पार्थिव देह को पंच तत्वों में विलीन करती है।
एक बार अग्नि की प्रेरणा से ‘पुलोम’ नामक असुर ने ऋषि भृगु की पत्नी ‘पुलोमा’ का अपहरण कर लिया। जब भृगु को वस्तुस्थिति का पता चला तो उन्होंने अग्नि को सर्वभक्षी होने का श्राप दिया। तभी से अग्नि भक्ष्य-अभक्ष्य सभी पदार्थों का सेवन करते हुए सर्वभक्षी देव बन गए।
मनुष्यों के दुष्कर्मों का दंड देने का अधिकार अग्नि के पास है, इसलिए इन्हें ‘दंडाधीश’ के नाम से भी जाना जाता है। इनके माता-पिता के संबंध में अनेक कथाएं हैं। ऋग्वेद में इन्हें शक्ति का पुत्र माना गया है। कहीं-कहीं इन्हें परमात्मा के मुख से उत्पन्न हुआ भी माना गया है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुए। ऋषि कश्यप की पुत्री ‘स्वाहा’ से अग्नि का विवाह हुआ। इनके ‘पावक’, ‘पवमान’ और ‘शुचि’ तीन पुत्र हुए। अग्नि के पुत्र और पौत्रों की संख्या उन्नचास है।
ऋग्वेद में अग्नि को मानव तथा देवताओं के बीच संदेशवाहक माना गया है। इन्हें यज्ञों का राजा और दिव्य पुरोहित भी माना गया है, जो यज्ञ में देवताओं को लाते हैं। अग्नि के प्रिय भोजन—घी, यव, तिल, दही, खीर, श्रीखंड आदि मिठाई हैं, जिन्हें ये अपनी सातों जिह्वाओं से ग्रहण करते हैं। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान अग्नि की उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता है।