शास्त्री कोसलेंद्रदास
भक्ति के सिद्धांत ने हिंदू समाज के सभी दलों को प्रभावित किया और जब पुराणों द्वारा प्रवर्तित भक्ति का प्रचार बढ़ा तो बौद्ध धर्म से हिंदू बाहर निकलते गए और वैदिक धर्म से जुड़ते गए। यहां तक कि स्वयं महायानी बौद्ध संप्रदाय ने भक्ति सिद्धांत को अपना लिया और मिलिंद प्रश्न, सद्धर्मपुंडरीक जैसे ग्रंथों में ऐसे वचनों का समावेश हो गया जो गीता से मिलते-जुलते हैं। गीता में ऐसी आश्चर्यजनक सहिष्णुता एवं संयोजन पाया जाता है जो अन्य धर्मों में कहीं उपलब्ध नहीं होता।
शरणागति है प्रपत्ति
रामानुजीय एवं अन्य वैष्णव शाखाओं के ग्रंथों में प्रपत्ति (आत्म-समर्पण) को भक्ति से भिन्न माना गया है। प्रपत्ति का अर्थ शरणागति है। इसमें पांच बातें हैं – अनुकूलता का संकल्प, प्रतिकूलता का त्याग, यह विश्वास कि परमात्मा (भक्त की) रक्षा करेगा, भक्त की रक्षा के लिए भगवद्भजन तथा आत्मनिक्षेप कर देने पर असहायता के भाव का प्रदर्शन। भक्ति के अन्य पर्याय शब्द हैं ध्यान एवं उपासना आदि। यतींद्रमतदीपिका में आया है कि यह प्रपत्ति गुरु के मुख से सुनी जानी चाहिए।
अध्यात्म के लिए आंदोलन
11वीं शती के उपरांत जब भारत पश्चिमोत्तर भाग के मुसलिम आक्रमणों से आक्रांत हो उठा तो इसके समक्ष एक बड़ी चुनौती उपस्थित हुई। वह चुनौती कई ढंगों से स्वीकार की गई। पहला ढंग था स्मृतियों के विस्तृत निबंधों का प्रणयन, जिनमें सबसे प्राचीन उपलब्ध निबंध है कृत्यकल्पतरु, जो लक्ष्मीधर (12वीं शती) द्वारा प्रणीत है।
लक्ष्मीधर उत्तरी भारत के हैं। दूसरे प्राचीन निबंधकार हैं हेमाद्रि (13वीं शती), जो दक्षिण भारत में के थे। दूसरा एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण ढंग था आध्यात्मिक। 13वीं से 17वीं शती तक अभूतपूर्व आध्यात्मिक पुनरुद्धार की उत्क्रांतियां पनपीं, जिनके फलस्वरूप भारत के सभी भागों में संतों एवं रहस्यवादियों का प्रादुर्भाव हुआ। स्वामी रामानंदाचार्य को इस भक्ति आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता है।
उनके साथ ही संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, चैतन्य, दादू, गुरुदेव नानक, वल्लभाचार्य, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि अनेक आध्यात्मिक विभूतियां हुर्इं। इनके प्रमुख तत्त्व एक ही थे। सभी भक्त मानते थे कि परमात्मा एक है। वह आत्म-शुद्धि से प्राप्त होता है। जाति की उच्चता की भर्त्सना, पूजा के आडंबरों की निंदा तथा मोक्ष के लिए भगवान में आत्मसमर्पण इनके प्रमुख सिद्धांत थे।
गीता में है ज्ञान-विज्ञान
गीता (9/23) में आया है कि यहां तक कि वे लोग भी, जो अन्य देवों के भक्त हैं और उन्हें भक्ति एवं विश्वास के साथ पूजते हैं, (परोक्ष रूप से) मुझे ही भजते हैं किन्तु अशास्त्रीय विधि से। भागवतपुराण में यही बात बढ़ाकर कही गई है। इस सिद्धांत का स्रोत ऋग्वेद में पाया जाता है, जहां यह आया है – एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:। – उसी एक ब्रह्म को मुनि लोग कई नामों से कहते हैं वे उसे अग्नि, यम और मातरिश्वा (वायु) कहते हैं। कालांतर में आचार्य रामानुज, मध्व, चैतन्य, वल्लभ आदि के साथ जगद्गुरु रामानंदाचार्य द्वारा प्रवर्तित भक्ति की विभिन्न शाखाएं हैं।
भगवान की शरण से मुक्ति
गीता ने सामान्य अथवा साधारण व्यक्ति की समस्याएं उठाई हैं, इसने निम्न स्तर पर जी रहे लोगों को भी आशा दी है कि उनके जीवन में भी वह परम तत्त्व एवं सत्य-स्वरूप समा सकता है। यदि ऐसे लोग अपने दैनिक कर्तव्यों एवं अपनी स्थिति के अनुरूप कर्मों को भगवान् में समर्पित कर दें तो उन्हें मुक्ति मिलेगी। यदि लोग श्रद्धा के साथ भगवान की कृपा पूर्ण शरण में आ जाएं तो मोक्ष-पद की प्राप्ति हो जाए। पुराण इसी स्वर में भक्ति के ज्ञान को उद्घोषित करते हैं जिस स्वर में गीता के वचन हैं।