तुम सदा कुछ खोज रहे हो। प्रतिपल, सोते-जागते खोज में लगे हो। शायद ठीक से पता भी नहीं कि क्या खोजते हो, और यह भी पता नहीं कि क्या खोया है; लेकिन खोज तुम्हारी आंखों में है। तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन में है। और यह खोज जन्मों से चल रही है। कभी तुम उस खोज को सत्य की खोज कहते हो, लेकिन सत्य तो तुमने कभी जाना नहीं, उसे खोज कैसे सकोगे? कभी तुम उसे परमात्मा की खोज कहते हो, लेकिन परमात्मा से भी तुम्हारा मिलन कभी हुआ नहीं, तो तुम बिछुड़ कैसे सकोगे? मंदिर में, मस्जिद में, काशी में, मक्का में, द्वार-द्वार तुम खोज करते-फिरते हो, इस आशा में कि जो खो गया है, वह मिल जाएगा। लेकिन जब तक ठीक-ठीक पक्का पता न हो कि क्या खोया है, कहां खोया है, तब तक खोज पूरी नहीं हो सकती। तुम्हारा अनुभव भी कहेगा—द्वार तो बहुत खटखटाए, लेकिन खाली हाथ ही तुम लौट आए हो। इसमें द्वारों का कोई कसूर नहीं है। खोज के पहले सुनिश्चित होना चाहिए— मैं क्या खोज रहा हूं? कहां खोया है? बीमारी का ठीक पता ही न हो तो तुम औषधि को कै से खोजोगे? वैद्य भी मिल जाए तो क्या करेगा?
नानक बीमार पड़े तो घर के लोगों ने वैद्य बुलाया। कोई बीमार पड़े तो हम वैद्य को बुलाते हैं। बिना यह समझे कि ऐसी भी बीमारियां हैं, जिनसे वैद्य का कोई संबंध नहीं। वैद्य आया, नानक की नब्ज पकड़ी, नाड़ी गिनने लगा। नानक हंसने लगे। उन्होंने कहा, ‘बीमारी वहां नहीं है, नाड़ी पकड़ने से कुछ भी न होगा; बीमारी हृदय की है।’
वैद्य की तो कुछ समझ में आया नहीं, क्योंकि वैद्य की तो एक दुनिया है, जहां नाड़ी से बीमारी पकड़ में आ जाती है।
नानक को वैद्य नहीं, गुरु चाहिए था। गुरु भी वैद्य है, पर शरीर का नहीं, हृदय का। और गुरु का पहला काम है, इस बात को स्पष्ट कर देना कि क्या खोज रहे हो। फिर खोज बहुत आसान हो जाती है।
निदान हो जाए तो औषधि खोजनी बहुत मुश्किल नहीं है। निदान आधा इलाज है। निदान न हो तो औषधियों के ढेर लगे रहें। ढेर लगे हैं तुम्हारे चारों तरफ, पर कौन-सी औषधि तुम्हारे लिए है? और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम शब्दों से प्रभावित होकर सोचने लगते हो कि शायद यही मैंने खोया है—परमात्मा को खो दिया है, सत्य को खो दिया है, मोक्ष को खो दिया है। फिर तुम खोज पर निकल जाते हो और खोज प्रारंभ से ही गलत हो गई।
जैसे-जैसे तुम्हें मैं समझता हूं और जैसे-जैसे तुम्हारे हृदय में देखता हूं, वैसे-वैसे लगता है, सिंहासन वहां खाली है। सिंहासन तो है, कोई जरूर वहां बैठा रहा होगा, वह भटक गया है। तुम्हारा हृदय सिंहासन है, प्रेम का सम्राट वहां से भटक गया है।
हर बच्चा प्रेम को लेकर पैदा होता है, लेकिन बड़े होने की प्रक्रिया में प्रेम कहीं खो जाता है। शिक्षा-दीक्षा, समाज-संस्कृति, प्रेम कहीं खो जाता है। उस प्रेम के खोने के कारण ही तुम्हारे भीतर एक रिक्तता है, एक अभाव है, एक खालीपन है। तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो, परमात्मा को नहीं। यद्यपि प्रेम मिल जाए, तो परमात्मा के मिलने का द्वार मिल जाता है। लेकिन खोज तुम प्रेम को रहे हो, परमात्मा से तुम्हारा मिलन कहां हुआ? परमात्मा को तुमने कभी जाना नहीं, वह अनजान है, उसकी कोई खोज नहीं हो सकती। खोज के लिए कुछ संबंध होना चाहिए। कुछ परिचय होना चाहिए। कोई पहचान होनी चाहिए। वह कोई भी पहचान तुम्हारी नहीं है।
सत्य तो सब तरफ मौजूद है। सत्य को तुम खोजोगे कैसे? सत्य तो है ही। असली सवाल तुम्हारे पास आंख का है। सूरज तो निकला है सदा से, तुम अंधे हो। अंधा सूरज को खोजे या आंख को? और आंख न हो, सूरज मिल भी जाए, तो क्या करोगे? कोई दरस तो न हो सकेगा। तुम तो अंधेरे में ही रहोगे।
आंख चाहिए, वही आंख प्रेम है। परमात्मा सब तरफ मौजूद है, आंख खो गई है, उसे अनुभव करने की क्षमता खो गई है। प्रेम का अर्थ है—अनुभव करने की क्षमता, संवेदनशीलता। प्रेम का अर्थ है— ऐसी पुलक, जिसमें तुम निर्भय होकर सब द्वार-दरवाजे खोल देते हो। जो द्वार पर खड़ा है, उसे तुम शत्रु की भांति नहीं देखते, अतिथि है, प्रेमी द्वार पर आया है, और तुम द्वार खोल देते हो।