नई दिल्ली:तिब्बत मामलों की अमेरिका की विशेष समन्वयक उजरा जेया भारत दौरे पर हैं। 17 मई को भारत पहुंची उजरा 22 तारीख तक भारत दौरे पर रहेंगी। इस दौरान वह नेपाल का दौरा भी करेंगी। 18 मई को उजरा धर्मशाला पहुंची जहां दलाई लामा रहते हैं और जहां से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है। वह दलाई लामा से मिलकर कई मसलों पर बातचीत करने वाली हैं। अमेरिकी विशेष समन्वयक का धर्मशाला का यह छठा दौरा है। ऐसे में आइए जानने की कोशिश करते हैं कि अमेरिका की तिब्बत पॉलिसी क्या है।
चीन पर सख्त कदम उठाने की कोशिश कर रहा है अमेरिका?
तिब्बत और चीन के बीच संबंधों का सबसे विवादास्पद विषय तिब्बत की आजादी है। 1950 के करीब से ही चीन ने तिब्बत पर अपना कब्जा करना शुरू कर दिया था। दलाई लामा तिब्बत पर चीन के कब्जे को सांस्कृतिक नरसंहार बताते हैं।
पिछले दो दशकों में अमेरिका और चीन के बीच संबंध तनावपूर्ण होते गए हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने होन्ग कोन्ग ऑटोनोमी ऐक्ट पर साइन किए थे। हालिया सालों में अमेरिका ने तिब्बत, होन्ग कोंग, शिनजियांग और ताइवान आदि को लेकर चीन पर सख्त कदम उठाने की कोशिश की है।
तिब्बत को लेकर बदल रही है अमेरिकी पॉलिसी?
तिब्बत की बात करें तो अमेरिका ने तिब्बत और दलाई लामा के समर्थन के बीच एक राजनयिक संतुलन बनाए रखा है। मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर रिपोर्ट में विदेश विभाग का तिब्बत पर एक अलग खंड है लेकिन अमेरिका ने दलाई लामा के साथ बातचीत या राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर कोई वास्तविक जोर नहीं दिया है। जनवरी 2021 में जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद से अमेरिका और तिब्बती नेतृत्व के बीच पहला उच्च स्तरीय संपर्क होगा। एंटनी ब्लिंकेन ने पिछले साल नई दिल्ली की अपनी यात्रा के दौरान दलाई लामा के एक प्रतिनिधि से मुलाकात की थी।
एक्सपर्ट्स क्या कहते हैं?
दुनियावी मसलों पर पकड़ रखने वाले केलसांग डोलमा ने बीबीसी से एक बातचीत में कहा था कि दशकों तक अमेरिका ने तिब्बत के मुद्दे पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा बोली है। तिब्बत पर चीन का साथ देकर अमेरिका एक चीन जैसे बड़े देश तक अपनी पहुंच बनाए रखना चाहता था। बाइडेन के सत्ता में आने के कुछ महीने बाद अमेरिकी विदेश विभाग की ‘कंट्री रिपोर्ट ऑन ह्यूमन राइट्स’ में ‘तिब्बत चीन का अंग है’ वाला हिस्सा हटा दिया। ये एक बड़ा परिवर्तन था।
डोलमा ने आगे बताया था कि इससे पहले अमेरिका ने 2020 में ‘टिबेटन पॉलिसी ऐंड सपोर्ट एक्ट’ पास कर दिया और इसमें कहा गया है कि तिब्बत में दलाई लामा सहित धार्मिक नेताओं के उत्तराधिकार का फैसला बौद्ध धर्मावलंबियों पर छोड़ा जाना चाहिए और इसमें चीन सरकार का कोई दख़ल नहीं होना चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष और प्रोफेसर बीआर दीपक बीबीसी से बातचीत में बताते हैं कि अमेरिका को लग रहा है कि चीन उसके सामने एक चैलेंजर की तरह बनकर खड़ा हो गया है। और वो अमेरिका आर्थिक शक्ति और तकनीकी दक्षता का मुकाबला कर रहा है। तो जैसे शीत युद्ध के समय अमेरिका और सोवियत संघ में विचारधारात्म विभाजन था, उसे दोबारा लाने की कोशिश हो रही है।
भारत की क्या हो पॉलिसी?
दुनियावी मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने टाइम ऑफ इंडिया के एक लेख में तिब्बत को लेकर भारत की पॉलिसी को लेकर कहा था कि चीन द्वारा भारत की एकता और क्षेत्रीय अखंडता को दी जा रही चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को मंथन करना होगा और रचनात्मक कदम उठाने होंगे। भारत को सबसे पहले अपनी पूर्वी हिमायली सीमा को ‘भारत-तिब्बत’ बॉर्डर कहना चाहिए।
उन्होंने आगे लिखा था कि भारत को यह कहना चाहिए कि चीन के तिब्बत पर दावों पर उसकी सहमति, चीन के उस वादे के बाद बनी थी जिसमें उसने तिब्बत को वास्तविक स्वायतता का वादा किया था। ये कहते हुए कि अब तिब्बत दोनों देशों के बीच बफर नहीं रहा, भारत को तिब्बत के लिए एक दूत नियुक्त करना चाहिए, जो भारत-चीन के बीच एक राजनीतिक पुल बने।